विक्टर फ्रंकेल और उनकी पुस्तक 'मैन्स सर्च फॉर मीनिंग' | DR. VICTOR FRANKL AND HIS BOOK 'MAN'S SEARCH FOR MEANING'

DR. VICTOR FRANKL AND HIS BOOK 'MAN'S SEARCH FOR MEANING' by अरविन्द गुप्ता - ARVIND GUPTAडॉ० हेनरी अब्रमसन - DR. HENRI ABRAMSONपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आते. पर बाकी सभी लोगों को बायीं ओर धकेला जाता. वहां उनके सारे व्यक्तिगत कीमती सामान छीने जाते. इसमें पतलून के अस्तर में सिले सिक्के, सोने के दांत, कृत्रिम अंग और चश्मे जैसे सामान शामिल्र होते. कुछ लोगों की चमड़ी भी उधेड़ी जाती, जिससे बाद में लैंप-शेड बनाये जाते. उसके बाद इन बंदियों को गैस की भट्टियों में मारा जाता और फिर उनके शवों को, दाह्ग्रह में जलाया जाता. जिन 10-प्रतिशित लोगों को दायीं ओर भेजा जाता उनसे कैंप में तरह-तरह के काम करवाये जाते. कुछ यहूदिओं को गैस-चैम्बर के मृत शवों को दाह्ग्रह ले जाना होता. कुछ यहूदियों को कैंप में देख-रेख के लिए मुखिया पुलिस बनाया जाता. कुछ कैम्प्स के साथ कारखाने भी जुड़े थे. मिसाल के लिए औश्विग के आस-पास 5 स्टेंलराइट कैम्प्स थे जहाँ युद्ध के लिए उपयोगी चीज़ों का निर्माण होता था. औश्विग के पास एक कैंप में एसीटोन बनता था. यह केमिकल कई उद्योगों में इस्तेमाल होता था. इन शिविरों में बंदियों के साथ गुलामों जैसा सलूक किया जाता था. भाग्यवश, फ्रंकेल को दायीं ओर भेजा गया. कैदी के रूप में उन्होंने कई महीने भूख झेलकर गुत्राम जैसे कड़ी मेहनत की. पर बाद में एक काउंसलर के रूप में उनकी शोहरत फैली और उन्हें कुछ आसान काम दिए गए. फ्रंकेल के साथ जो विशेष सलूक किया गया शायद उसी वज़ह से वो कैंप की ज़िन्दगी और युद्ध को झेल पाए. 1942 से लेकर 1945 तक, उन्होंने कंसंट्रेशन कैम्प्स के ववशीपन और निर्ममता को खुद अनुभव किया. वो कई कैम्प्स में गए जिनमें औश्विग, और दचाऊ के नज़दीक दुर्खायिम कैंप भी शामिल थे. इन कंसंट्रेशन कैम्प्स में फ्रेंकल ने अपनी सबसे महत्वपूर्ण खोजें कीं. होलोकॉस्ट साहित्य में बार-बार कैम्प्स में बंदियों का ज़िक्र आता है जिन्हें “मुसलमान” बुलाया जाता है. यहाँ “मुसलमान” शब्द का इस्लाम धर्म से कुछ लेना- देना नहीं है. यह शब्द उन बंदियों के लिए इस्तेमाल किया जाता था जो अब माँत की कगार पर थे. शायद उनके अंत में हफ्ते, दो-हफ्ते ही बचे थे. इन बंदियों ने आशा छोड़ दी थी और पूरी तरह से नाउम्मीद हो गए थे. वे शिविर में पागलों की तरह इधर-उधर निरउद्देश्य घूमते रहते थे. जीवन जीने की उनकी इच्छाशक्ति बिलकुल ख़त्म हो गयी थी. ज्यादा खाना मिले इसमें भी उनकी अब कोई रूचि नहीं थी. वो कैंप में बदहवासी की हालत में इधर-उधर घूमते-फिरते थे और फिर भुखमरी और बीमारियों से मर जाते थे. कुछ मनोचिकत्सकों के अनुसार “तब इंसान मर जाता है, बस उसका खोल बचता है.” फ्रंकेल ने कई बार बाकी बंदियों को आपस में फुसफुसाते हुए सुना, “देखो उसका अब एक ही हफ्ता बचा है, उसके दस दिन बचे है, आदि.” ऐसे लोग बिलकुल अलग और साफ़ छिटकते थे. अगर कोई उनके जूते चोरी कर के लेता तो भी वो बदले में कुछ नहीं करते. वे बिना जूतों के नंगे पैर घूमते रहते और अंत में बर्फीली ठण्ड से चल बसते. ऐसा केवल कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही घटता है. कैम्प्स में पोषण स्तर अनाथालयों से भी कहीं बदतर था. कैंप में “मुसलमान” जैसे शब्दों के उपयोग मज़ाक में किया जाता था. उस समय ऐसे कई मजाकिया शब्द प्रचलन में थे. मिसाल के लिए यहूदियों से ज़ब्त किये चश्मे, सोने के दांत आदि सामान को जिस बड़े गोदाम में रखा जाता था उसे “कनाडा” बुलाया जाता था. फ्रंकेल खुद “मुसलमान” बनने की प्रक्रिया से गुज़रे थे और उन्होंने उसका बहुत करीबी से अध्ययन कर, उस प्रक्रिया को बहुत गहराई से समझा था. यहाँ पर एक अन्य शोधकर्ता और विद्वान टेरेंस देस प्रेस का उल्लेख बहुत ज़रूरी है. वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने कंसंट्रेशन कैम्प्स के कैदियों का अध्ययन किया. उनके ऊपर उन्होंने एक विलक्षण पुस्तक लिखी “द सरव्हाईवर” जो 1980 के शुरू में छपी. पर अपनी पुस्तक लिखने के तुरंत बाद टेरेंस देस प्रेस ने खुदकशी कर ली. उन्होंने कंसंट्रेशन




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