उजड़ गया मेरा पडौसी | UJAD GAYA MERA PADOSI

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गुरचरण सिंह - GURCHARAN SINGH

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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संतोख सिंह धीर - SANTOKH SINGH DHEER

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8/2/2016 “खैर, अच्छा दुल्ला, तेरी कजान तो बच गयी। सब-कुछ फिर से ठीक हो जाएगा।” “अच्छा, शुक्र है उस परमात्मा का...” दुल्ले ने आसमान की ओर अदब से संकेत करते हुए कहा। दूर, ऊँचाई पर कौवों की एक पंक्ति उड़ती हुई गाँव की ओर जा रही थी। दुल्ले की आँखों में इच्छा और लालच चमक उठा-..“यदि में कहीं कौवा बन जाऊँ...जाती बार तो अपने गाँव की मुँडरों पर $खूब 5 ..मेरी जान को कोई खतरा नहीं होगा...मेरा कौन-सा कोई मज़हब होगा...!” पंक्ति दूर निकल गयी थी, जैसे कि कौवे मच्छर बन गये हों। दुल्ले ने कौवों की दूरी जितना लम्बा साँस लिया। “बेटी जैनब! तू भी कोई बात कर ले, भैया खड़ा है।” दुल्ले ने बेटी पर दया और लाड़ करते हुए कहा। जैनब का रुदन अब टूटी हुई सिसकियों में बदल गया था। वह रो-रोकर निठाल हो गयी थी। उसकी फटी हुई चुनरी आँखों के पानी में डूबकर लाल-लाल मछल्नियों-सी लग रही थी। उसके मुँह से आवाज़ निकली--“भैया, तुम मुझे अब भी रख लो...हम तुम्हारे धर्म में आ जाते हैं।” “बहन, आज मेरा कोई धर्म नहीं। यदि मेरा धर्म होता तो मेरे सामने आप इस तरह बेघर न होते। ” “अच्छा...भैया...।” जैनब ने एक पल के लिए आँखें फाडक़र मेरी तरफ देखा, जैसे कि अँधेरे में वह कोई सुरक्षा की किरण तलाश रही हो। पर जल्द ही उसकी अधबुझी आँखों पर धूल-सनी पलकें झुक गयीं। उसका दिल चीख उठा। उसने महसूस किया--. बहन को घर की तरफ आते देखकर निर्मोही भैया ने दरवा$जा बन्द कर लिया।” “अच्छा बचनसिंह, गाँव के दरवाजे को हमारा सलाम कहना। और बरसात के पानी में हमारे मकान-कोठे का ध्यान रखना। कहीं छत चूने न लगे। हमारे परदादे के समय से यह छत हमें ओट देती रही है। सूने घर की पर्तें उतर-उतरकर मकान को खोखला कर देती हैं।” “तुम्हारे कोठे की...” मेरे मुँह से सच निकलने लगा था कि-'अभी तुमने चौखट ही पार की होगी, तुम्हारे जाते ही उसमें आग की लपटें जल उठीं। नीली जीभों वाली आग की लपटें सर्पिणियों की तरफ फुँकार रही थीं, जिनकी लपेट में तुम्हारी छत की सड़ी कडिय़ाँ तिडक़-तिडक़र जल गयीं और लपटों की गरमी से अधजली दीवारों में दरारें पड़ गयीं।'” पर सच कभी-कभी बरछे-सा चुभता है और बहुत दु:ख देता है। और हम सच से वाकिफ़ होते हुए भी जब झूठ को सुनते हैं तो आत्मा प्रसन्‍न हो जाती है। दु:खते हुए दिल को और दु:खी क्यों करूँ? मैं उसे सच बताते-बताते रुक गया और धीरे-से कहा-.-“तुम बेफ़िक्र रहो, दुल्ला। तुम्हारे घर का मैं ध्यान रखूँगा।” हम सडक़ की कच्ची पटरी से उतरकर कुछ नीचे की ओर हो गये। रक्षक सिपाहियों की एक बस आधी कच्ची और आधी पक्की सडक़ पर चलती-लुढक़ती आ रही थी। घूँ-घूँ करती लुढक़ती बस हमारे पास से गुजर गयी। धूल का एक भूरा बादल धरती से उडक़र वायुमंडल में बिखरने लगा। दूर तक इस बादल में संगीनों की तेज जीभैं चमकती जा रही थीं। बादल थककर बिरला हो गया था। धूल की खुश्की धीरे-धीरे काफ़िले पर गिरती हुई जमती चली गयी। 4/6




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