पलंग | PALANG

PALANG  by पुस्तक समूह - Pustak Samuhप्रियंवद - PRIYANVAD

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

पुस्तक समूह - Pustak Samuh

No Information available about पुस्तक समूह - Pustak Samuh

Add Infomation AboutPustak Samuh

प्रियंवद - PRIYANVAD

No Information available about प्रियंवद - PRIYANVAD

Add Infomation AboutPRIYANVAD

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
8/26/2016 शराब की अधिकता से मैं उस रात सोया नहीं। दो बार उल्टी हुई | छाती मलता रहा। उस रात मैं ने मां को ध्यान से देखा। बहुत बूढी हो चुकी थी वह। बाल बिलकुल सफेद थे। चेहरे पर झुर्रियों का जंगल था। गात्र अन्दर धंसे थे सोते समय उसका पोपला मुंह थोडा सा खुला था, जिससे बहुत धीमी, अजीब सी आवाज आ रही थी। मैं बहुत देर उसे देखता रहा। सचमुच वही एक औरत थी दुनिया मैं जो मुझे प्यार करती थी। वह मुझे पवित्र लगी। उस रात मैं सोया ही नहीं | मां रोज क़ी तरह बहुत जल्दी उठ गयी, बिलकुल अंधेरा था तब। उसी तरह वह अपने सब काम करने लगी। मैं चुपचाप आंखें खोले उसे देख रहा था। उसी तरह मां ने सफाई की, अन्दर गयी और नहाने लगी। फिर अचानक वह कुछ लेने के लिये बाहर निकली। मैं ने उस क्षण मां को देखा। मैं सन्‍न रह गया, फिर एकदम से चीख पडा। वह पूरी तरह निर्वसन थी। उसे बिलकुल भी एहसास नहीं था कि मैं जाग रहा हूं। पूरी ताकत से मैं पलंग से उछला और उसे बाहर धकेलने लगा। निकल बाहर इसी तरह निकल। मैं पागलों की तरह सिर झटक रहा था। मां ने एक बार मुझे देखा और मेरे चेहरे की घृणा देखकर उसी क्षण जैसे मुर्दा हो गयी। बिलकुल नंगी वह मेरे सामने खडी थी। गली हुई खाल में कंकाल की तरह। खाली सफेद आंखों से कुछ देर देखती रही फिर एकदम से मेरे पैरों पर गिर पडी। मेरे दोनों पंजे उसने पूरी ताकत से पकड लिये। वह गिडगिडा रही थी, एक बार बस एक बार माफ कर दो। उसने सिर उठाया। वह रो रही थी। उसके चेहरे पर सिर्फ हीनता थी। किसी भी सीमा तक पराजित क्षरित होने की हीनता। ऐसी याचना थी जो मनुष्य की आत्मा का पूरा सत्व सूख जाने के बाद पैदा होती है। सब कुछ बेहद पारदर्शी था। उसकी ग्लानि भय लज्जा और हीनता। मैं ने उसे घृणा से धकेला और बाहर निकल गया। सीधा उस औरत के घर गया और उससे कह दिया कि मैं जल्दी ही उससे शादी कर लूंगा। उसी दिन पलाश की नंगी, छितरी शाखों पर पहला फूल खिला था। उसके बाद मां जैसे राख हो गयी थी। बिलकुल चुप - सी। अपने कोने में और ज्यादा सिमट गयी थी। न मुझे उस तरह प्यासी आंखों से देखती, न नजर मिल्राती। उसके चेहरे पर एक तरह का कालापन उतर आया था। मैं कमरे में होता तो वह बहुत ज्यादा सहमी होती। सिर झुकाए, चुपचाप, धीरे - धीरे कुछ करती रहती - आतंकित किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत अपने अस्तित्व को कहीं छुपाने की कोशिश करती हुई। उसका अपने ऊपर विश्वास पूरी तरह खत्म हो चुका था। मेरे लिये खाना रखती और कुछ भी नहीं पूछती। रात को मेरे साथ सोती पर अब उसने मुझे बहाने से भी छूना छोड दिया था। अतीत का कुछ भी याद नहीं दिल्राती। पलंग के एक हिस्से में पूरी तरह दुबक जाती। उसने शायद अब पलंग से बात करना भी छोड दिया था। मैं उसे रात को बुदबुदाते या हंसते भी नहीं सुनता था। उसके अन्दर जैसे सब मर चुका था। शायद पलंग भी | उन्हीं दिनों पलाश पर सुर्ख जंगल खिलना शुरु हुआ और साथ ही मां बीमार हो गयी। उस रात बेहद तेज बारिश हो रही थी। मैं ने शाम से ही शराब पीनी शुरु कर दी थी। मां चुपचाप पलंग पर चादर ओठढे लेटी थी। अपनी जगह पर बहुत ज्यादा सिकुडी हुई | मैं उसके पास आकर लेट गया। वह लम्बी सांसें ले रही थी, जैसे बहुत तकलीफ हो रही हो। मैं ने उठ कर उसे देखा। बहुत दिनों बाद मैं उसे ध्यान से देख रहा था। उसकी झुर्रियां बेहद घनी हो गयी थीं। मैं ने धीरे से उसे छुआ। उस दिन के बाद से पहली बार। वह एक बार कांपी फिर मेरी 4/5




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now