मंदिर जहाँ जाना मना था | MANDIR JAHAN JANA MANA THA

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टी० वी० पद्मा - T. V. PADMA

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इतनी बड़ी है कि एक पूरी साड़ी की लम्बाई लग जाएगी। कभी कभी उसकी मां या पिता उसकी मदद करते, पर ज्यादातर वे ऐसे कामों में व्यस्त होते जिनसे कमाई होती थी, इसलिये वेनिल अक्सर अकेले लगी रहती थी। “तुम्हें बाहर जाकर ताजी हवा खानी चाहिये, कन्‍्ना,”” उसकी मां उसे याद दिलाती ओर उसे छोटे मोटे काम बता देती जिससे वह उस गर्म कमरे से बाहर जा सके। वेनिल जितनी जल्दी हो सके वापस आ जाती ओर फिर हताशा से उस धागे को देखती जिसे बुनना बाकी था। कभी कभी उसे ऐसा लगता कि साड़ी कभी पूरी ही न होगी। पर एक दिन आया, जब वह पूरी हो गई। उसके माता-पिता ने उसे करघे से निकालने में मदद की ओर उसके सिरे दोनो ओर से पकड़ लिये। चटख लाल - हरी साड़ी दोनों के बीच झिलमिला रही थी। “ “हमारा सबसे सस्ता धागा था ओर तुमने ऐसे बुना, कि महंगा रेशम सा दिख रहा है।”” उसके पिता ने गर्व से कहा। वेनिल ने उसे काफी देर तक देखा, फिर उसमें साफ चोकोर तह लगा कर अपनी मां को दे दिया। “में कुछ देर बाहर घूम आने का सोच रही हूं अम्मा। “आखिरकार ' मां मुस्कराई। वेनिल उस घुटन भरी झोंपड़ी से बाहर निकली ओर अपनी बुनी साड़ी के बारे में सोचने लगी। हां, अप्पा ठीक कहते हैं। उसने बहुत अच्छा काम किया है ओर उसे अपने पर गर्व होना चाहिए। पर उसे जो महसूस हो रहा था, वह गर्व नहीं था। अब जबकि काम पूरा हो गया था, उसका मन उस कारण पर लोट आया था, जिसके लिए उसने इतनी मेहनत की थी। क्या जिस मनोकामना को पूरी करने के लिए उसने इतनी मेहनत की है, कभी पूरी नहीं होगी? नीम के पेड़ की छाया में बेठकर उसने यह कल्पना करने की कोशिश की कि देवी उसकी बुनी साड़ी में केसी दिखेगी, पर कितना कठिन था यह! उसने अब तक प्रतिमा का एक छोटा सा प्रतिरुप ही देखा था, देवी की ग्राम परिक्रमा के समय, वह भी दूर से ओर लोगों की धक्का -मुक्‍्की के बीच में। देवी के नेन-नक्श केसे होंगे, इसकी तस्वीर तो उसे कल्पना में ही पूरी करनी थी। अचानक उसे बड़ी गहरी ओर उत्कट इच्छा हुई, उस भेंट को अर्पित करने की, जिस पर उसने कड़ी मेहनत की थी। यह बिल्कुल जायज नहीं है! “क्या बात है बिटिया? ऐसे आंसू क्‍यों?” वेनिल ने अपने कंधे पर एक प्यार भरे स्पर्श की नर्म गर्माहट महसूस की। उसे तो पता भी नहीं चला था कि कब आंसू उसके गालों पर ढुलक आए थे। उसका सामना ऐसी नर्म आखों से हुआ, जेसी उसने पहले कभी नहीं देखी थीं। बिल्कुल नए जन्मे बछड़े की तरह मासूम, उत्सुक, विश्वास से भरी। इतना ही नहीं, वे उसकी कल्पना की देवी की आंखों सी भी लग रही थी, समझ से भरी, स्नेहमयी ओर दयामय। एक स्त्री अपनी भगवा साड़ी के छोर से उसके आंसू पोंछ रही थी। ऐसा नहीं हो सकता। हो ही नहीं सकता! भगवा रंग, एक साध्वी! वह उससे कितने प्यार से बात कर रही थी, कितनी कोमलता से पकड़कर छू रही थी। कहीं यह सपना तो नहीं? “मैं-में-में एक जुलाहे की बेटी हू!” वह हकलाने लगी। “तुम्हारा नाम कया है, बिटिया? '' “मैं-में-में एक शूद्र हूं, स्वामिनी!”” “मेरी बच्ची, मेंने तुम्हारा नाम पूछा हे, तुम्हारी जाति नहीं ।”” “क्या? आप कोन हें?! “में एक सन्यासिनी हूं, जेसा कि तुम देख सकती हो। मेंने इस संसार का त्याग कर दिया है, साथ ही इसकी मान्यताओं ओर रीति रिवाजों का भी। ईश्वर तुम्हारी जाति नहीं देखता, मेरी बच्ची, ओर न ही में देखती हूं। '




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