तीसरी फसल | TEESRI FASAL

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आनंद स्वरुप वर्मा - Aanand Swaroop Verma

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पी० साईनाथ - P. SAINATH

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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12 तीयरी फसल से लाऊं? आज हालत यह है कि नौ सदस्यों का यह परिवार 5.80 एकड़ जमीन पर खेती करके बमुश्किल जीविका चला रहा है। जो जमीन उसके पास है वह भी बहुत खराब किस्म की है। भोपाल में एक अधिकारी ने बातचीत में बताया कि रामदास के अनुभवों से यह पता चलता है कि योजना बनाने वालों और योजना का लाभ उठाने वालों के बीच कितनी दूरी है। रामदास की समस्या का संबंध उसकी जमीन के हड़पे जाने और उसके टूटे फूटे कुएं से था। सरकार की समस्या थी कि वह किस तरह अपना लक्ष्य पूरा करे। इस काम में जो अफसर और ठेकेदार शामिल हुए उनकी समस्या इसके लिए निर्धारित धनराशि को लूटने की थी | “जनजाति समूहों के संदर्भ में बुरी तरह विफल हो चुके तथाकथित क्षेत्र विकास दृष्टिकोण के कारण यह काम और आसान हो जाता है। इसका नतीजा यह हुआ . है कि समूचे इलाके और निर्धारित धनराशि को निजी ठेकेदारों को सौंप दिया गया | वे प्रायः स्थानीय अधिकारियों और अन्य निहित स्वार्थी तत्वों के गुर्गे होते हैं। यह प्रक्रिया खुद-ब-खुद गांव वालों को निर्णय लेने से अलग रखती है। इन दूर-दराज के क्षेत्रों में गंभीरता के साथ खर्च की गई राशि की जांच पड़ताल शायद ही कभी हो पाती हो |” इस अफसर ने पहाड़ी कोरवा के नाम पर अब तक खर्च की गई शहरी धनराशि के संभावित इस्तेमाल की गणना की और बताया कि अगर इस पैसे को किसी बैक में जमा खाते में डाल दिया गया होता तो कोरवा परिवारों के किसी सदस्य को कभी काम ही नहीं करना पड़ता। इस पैसे से ब्याज के रूप में जो धन मिलता उससे ही वे काफी खुशहाल हो जाते | इस बीच लूट-खसोट अभी भी जारी है। रचकेठा में हमलोग जिस समय थे तभी मैंने देखा कि एक स्थानीय एडवोकेट वहां के एक एनजीओ कार्यकर्ता से बता रहा था कि 'इस साल सूखे के दौरान मैंने बस इतना किया कि एक छोटे से बांध की ठेकेदारी में भागीदार हो गया। उसी से मैंने यह स्कूटर खरीदा | अब अगर अगले साल भी सूखा पड़ गया तो मेरे पास एक नई जीप हो जाएगी |' किसी ने यह सोचने की जरूरत ही नहीं समझी कि दरअसल रामदास को किस चीज की जरूरत है, उसकी क्‍या समस्या है अथवा कैसे उसकी समस्याओं के समाधान में उसे भी शामिल किया जाय । इसकी बजाय उन्होंने 17.44 लाख खर्च करके उसके नाम पर एक सड़क बनवा दी जिसका इस्तेमाल वह भी नहीं करता है। “सर, हमारी पानी की समस्या के लिए आप क॒छ करिए, रामदास ने कहा। हम अब वहां से रवाना हो रहे थे ताकि दो किलोमीटर की दूरी तय कर उस सड़क तक जा सकें जो कहीं नहीं पहुंचाती है | नाम में क्या रखा है ? धुरुआ से पूछे मलकानगिरि उड़ीसा : माझी धुरुआ का साबका अभी अभी नौकरशाही के एक अजीबो-गरीब सच से पड़ा है | जिस छोटे अधिकारी से उसकी बातचीत हो रही थी उसने कहा - ” कागजात देखने से यह तो पता चलता है कि तुम एक आदिवासी हो लेकिन तुम्हारा भाई आदिवासी नहीं है । ... मलकानगिरि की धुरुआ जनजाति के इस व्यक्ति माझी के लिए यह एक अबूझ पहेली लग रही थी। उसने बार-बार जोर देकर कहा कि अगर वह आदिवासी है तो उसका सगा भाई भी आदिवासी ही होगा । उसकी दलीलों से उकता कर उस अफसर ने कहा कि - “अब मैं तुमको कैसे सारी बात समझाऊं? तुम न तो पढ़ सकते हो और न लिख सकते हो |” यहां रहने वाले धरुआ आदिवासी समुदाय को आदिवासियों के लिए निर्धारित उन लाभों से महज इसलिए वंचित हो जाना पड़ा क्‍योंकि अनुसूचित जनजातियों के लिए जो सरकारी सूची तैयार की गई थी उसमें, ऐसा लगता है कि, स्पेलिंग की कोई गलती थी। या तो ऐसा हुआ या इस विवाद के कारण कि इस जनजाति की स्पेलिंग क्‍या हो, वे सारे लाभ से वंचित कर दिए गए। जब माझी धुरुआ ने पहली बार मुझे यह बात बतायी तो मुझे सारा कुछ असंभव सा लगा | लेकिन ऐसा था नहीं।.... हमने दो दस्तावेजों को देखा | पहला दस्तावेज दिल्‍ली से प्रकाशित अनुसूचित जनजातियों- की सरकारी सूची से संबंधित था और दूसरा दस्तावेज भुवनेश्वर से प्रकाशित “बेसिक डाटा ऑन शेड्यूल्ड कास्ट्स एंड शेड्यूल्ड ट्राइब ऑफ उड़ीसा” था। दोनों दस्तावेजों में आदिवासी समूह को धरुआ बताया गया था। लेकिन इस जनजाति के लोग खुद को धुरुआ कहते हैं। (स्थानीय दस्तावेजों में भी इनकी जाति धुरुआ ही दर्ज है)। नाम की स्पेलिंग में 'यः की बजाय 'ए* रख देने की जो गलती हो गई थी उसने इन आदिवासियों को मिलने वाले सारे फायदों को हड़प लिया । उस छोटे अफसर ने माझी से कहा - “हमलोग तुम्हारे भाई को आदिवासी नहीं मान सकते। उसके कागजात देखने से पता चलता है कि वह धुरुआ है। हमारे दस्तावेजों में इस नाम की कोई जनजाति नहीं है। हम केवल धरुआ को जानते हैं। माझी ने बताया कि खुद उसके सर्टीफिकेट में घुरुआ लिखा हुआ है पर उसे एक आदिवासी मान लिया गया है | फिर उसके छोटे भाई को क्‍यों नहीं माना जा रहा है ?




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