अनौपचारिक शिक्षा - कुछ पहलू 1979 | ANAUPCHARIK SHIKSHA - KUCH PEHLOO 1979
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
64
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
जे० पी० नाइक - J. P. NAIK
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)20 / अनौपचारिक-शिक्षा : कुछ पहल्
रखा था। हमने उसे स्वीकार कर लिया। फिर हमने देखा कि यह तो बिल्कल ही
सर्वेसाधारणी है। अतः 14 वर्ष की आयु तक के बच्चों को अच्छी शिक्षा देने का
संकल्प किया। जब यह भी असन्तोषजनक लगा तो हममें से कुछ लोग संविधान में
संशोधन करके 16 या 18 वर्ष तक अनिवार्य शिक्षा देने के प्रावधान की चर्चा
करने लगे हैं। लेकिन जहां हमारे लक्ष्य कागज पर आसमान छठते जा रहे हैं, हम
1981 तक सभी बच्चों को चार वर्ष की शिक्षा भी नहीं दे पाए जबकि उस वर्ष
. दादाभाई नौरोजी की मांग की शताब्दी थी ।
सार्वेजनीन प्रौढ़ शिक्षा का भी यही हाल है, जिस पर 40 वर्ष पहले काम
शुरू हो चुका है। इस शताब्दी के चौथे दशक में लोगों को इसे साक्षरता अभि-
यान कहने तथा अवाम की निरक्षरता उन्मूलन करने की बात करने में शर्म मह-
सूस नहीं होती थी । पर हम सोचने लगे कि मात्र साक्षरता से क्या होगा, अतः:
हमने प्रोढ़-शिक्षा के कार्यक्रम बनाने शुरू कर दिये । जब यह देखा कि प्रौढ़-शिक्षा
का काम सामाजिक परिवतंन लाने के काम से अलहदा नहीं रखा जा सकता, तो
हमने उसे असामाजिक शिक्षा का नाम दे दिया और लोगों को नयी शब्दावली से
परिचित कराने की गरज से “सामाजिक (प्रौढ़) शिक्षा” को संक्रमणकालीन
पदावलि के रूप में अपनाया । कुछ समय तक हम “कामचलाऊ साक्षरता” और
“बुनियादी शिक्षा” के ख्यालों से भी खेलते रहे । अब हम सब कुछ भूलकर अचा-
नक अनौपचारिक-शिक्षा खोज लाये, और संक्रमणकालीन कदम के रूप में हम
अनौपचारिक ्रौढ़ शिक्षा निदेशलय की स्थापना भी कर चुके हैं। 'साक्षरता'
में 'अनौपचारिक-शिक्षा' तक पहुंचने की वचारिक प्रगति से मैं इंकार नहीं करता,
पर यह कहे बगर भी मैं नहीं रह सकता कि इन तमाम वर्षों में काम के नाम पर
बहुत कम काम हुआ है---हमारी जनता का 60 प्रतिशत भाग आज भी निरक्षर
है, और उसकी वास्तविक संख्या निरंतर बढ़ रही है।
अतः मैं बहुत जोर देकर अपनी पूरी ताकत से, अर्ज करूंगा कि हम अनौप-
चारिक-शिक्षा के कार्यक्रमों को गंभीरता से उठायें, न कि उस चाल ढंग से जिसके
शिकार अतीत में हमारे अनेक अन्य कार्यक्रम हो चुके हैं जबकि उनकी महत्ता
भी इतनी ही (या अधिक) थी।
दूसरा अध्याय
अवधारणा, पद्धतियां और स्थान
पिछले अध्याय में यह विचार रखा गया है कि अनौपचारिक-शिक्षा के
कार्यक्रों से खिलवाड़ करने की बजाय, हमें अनौपचारिक-शिक्षा में
इन दिनों उत्पन्न अभिरुचि का उपयोग शिक्षा तथा समाज में सम्पुर्ण सुधार कार्ये-
क्रम बनाने में करना चाहिए । यदि इस दृष्टिकोण पर आगे चलना है तो हमें एक
ऐसी सर्वांगीण शिक्षा-व्यवस्था की रचना के जरिये जिसमें कि औपचारिक, अनौ-
पचारिक और आकस्मिक इन तीनों माध्यमों का समाहार हो, एक अध्ययनशील
समाज की रचना करने और सभी लोगों को आजीवन शिक्षा सुलभ करने की
दिशा में बढ़ना होगा, जिससे कि प्रत्येक व्यक्ति को समुचित अवसर अपने सारे
जीवन में उपलब्ध होते रहेंगे और :
वह जो चाहे तथा वह जिससे चाहे उससे, अपनी रुचि की रफ्तार से
सीख सके, तथा
जो उससे सीखना चाहें उन्हें वह जो जानता है वह सिखा सके।
अतएव यह तथा अगला अध्याय इस कार्यक्रम तथा अनौपचारिक-शिक्षा के
विकास में उसके निहितार्थों के विस्तुत विवेचन का प्रयत्न करेगा।
औपचारिक तथा अनौपचा रिक-शि क्षा
ऊपर अनौपचारिक-शिक्षा को औपचारिक प्रणाली से बाहर संगठित शिक्षण
कहा गया है। शुरुआत के लिए यह काफी अच्छी परिभाषा है। लेकिन इससे
अनौपचा रिक-शिक्षण के स्वरूप या औपचारिक।एवं अनौपचारिक-शिक्षा के आपसी
सम्बन्ध का ठीक-ठीक आभास नहीं मिलता । यदि अनौपचारिक-शिक्षा की अव-
धारणा को ठोस तथा कारगर कार्यक्रमों में रूपांतरित करना है तो इसके मूल-
भूत गुणों का सविस्तार विवेचत आवश्यक है।
बुरुआत के तौर पर हम औपचारिक और अनौपचारिक-शिक्षा के साम्य-
वषम्य देखें । क् द
(1) औपचारिक स्कूल की संरचना कुछ सिखाने या अध्यापन के लिए की
जाती है अतः: इसी विशेष उद्देश्य के चतुदिक सभी कुछ बन जाता है। मसलन,
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