खरगोश | KHARGOSH

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प्रियंवद - PRIYANVAD

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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142 श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1980-1990) अविनीश भाई कुछ नहीं बोले। “छत पर क्या है?'! मैंने ईैगली उधर दिखाई। “नाच सिखाने का स्कूल है।'' मैं चुप हो गया। मैं उसे बिल्कुल साफ देख पा रहा था। तेज हवा में उड़ते उसके खुले बाल...गोरा रंग...। उसने एक बार अविनीश भाई को देखा फिर अंदर चली गई। “वह क्यों चली गई?” मैंने पूछा। “उसकी क्लास शुरू हो गई और हमारी क्लास खत्म'' अविनीश भाई ने मुझे ढकेला। मैं मुँडेर से कूदकर उतरा और अविनीश भाई के साथ लटक गया। तोते फिर घरों को लौट रहे थे। आज पतंग नहीं थी इसलिए मैंने उन्हें फँसाने के लिए अविनीश भाई से नहीं पूछा। अब शाम को अविनीश भाई के आवाज देने से पहले ही में तैयार रहता। कभी खुद ही उनके पास चला जाता। “चलो अविनीशी भाई...मृत्यु आती होगी?! अविनीश भाई खिलखिला पड़ते। “यू टू...ब्रूटस।' हम उसी तरह चबूतरे पर बैठते रहे। ““हम कब तक इस तरह बेठते रहेंगे?”' एक दिन मैंने पूछ लिया। 4५ क्यों 277 “कुछ होता ही नहीं। बस आओ...यहाँ बैठकर देखते रहो...फिर छत पर बेठो, देखते रहो। इस तरह देखने से क्या मिलता हे तुम्हें? न पतंग उड़ाना न घूमना...।'' “तू भी तो देखता है।'” अविनीश भाई ने जेब से एक मीठी गोली निकालकर मुझे दी। “वह तो तुम दिखाते हो इसलिए देखता हूँ...मुझे क्या।'' मैंने गोली मुँह में रख ली। “तुझे अच्छी नहीं लगती।'! “लगती तो है।'' में झेंप गया। ''पर इससे क्‍या होता है।'' खरगोश 143 ““इसी से होता है...इतनी सुंदर कोई लड़की देखी है तूने कभी?” में चुप हो जाता। सच यही था कि उसके पेट का वह हिस्सा मुझे भी अच्छा लगता था। मन करता था...मुँह चिपका दूँ उसमें ...या चबा लँ। “एक काम कर मेरा।'” अविनीश भाई ने जेब से एक कागज निकाला। “आज वह आए तो जाकर उसे यह दे देना।'! “क्या है यह?! “'चिट्ठी। ' “'नहीं।'! “क्यों?” “मारेगी।'! “नहीं मारेगी।'' “तो तुम दे दो न।! “मुझे मुहल्ले में सब देखेंगे...तुम बच्चे हो...कोई कुछ नहीं कहेगा।'' “पर उसने पकड़ लिया तो?! “बस हाथ में देना और भाग जाना।'! “कहाँ?! “घर। मैंने कागज मुट्ठी में दबा लिया। “एक गोली और दो।”! अविनीश भाई ने जेब से एक गोली और निकालकर मुझे दी। मैंने उस गोली को भी मुँह में रखा और चुपचाप उसका इंतजार करने लगा। थोड़ी ही देर में वह आती दिखाई दी। उसी तरह ...कंधों तक खुले बाल, फरफराते कपड़े। “चल तैयार हो जा।'' अविनीश भाई ने मुझे चबूतरे से ढकेल दिया। कागज मुट्ठी में दबाकर मैं खड़ा हो गया। दौड़ शुरू होने के पहले वाली मुद्रा में। मेरी साँस तेज चलने लगी...बदन फूलने-पिचकने लगा। धीरे-धीरे वह मेरे सामने आ गई। “दौड़।'” अविनीश भाई फुसफुसाए।




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