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DARSHAK by पुस्तक समूह - Pustak Samuhप्रियंवद - PRIYANVAD

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8/26/2016 आकांक्षाओं को पंख देना। एक नए सम्बन्ध को जन्म देना। उसकी अपेक्षाएं, उसके अधिकार, उसके अस्तित्व की सततता को, उसकी कल्पनाओं को गतिशील करना था। एक अव्यक्त भ्रूण को जीवन का प्रकाश देना था। संभव था इस देह भोग के बाद हमारे बीच सिर्फ अपेक्षाएं शेष रह जायें संभव था सिर्फ निर्मम और सम्वेदनहीन और सम्वेदनहीन प्रतिक्रियाएं जीवित रहें संभव था कि यह सम्बन्ध कुरूप और बेहूदा हो जाये। यह एक कठोर निर्णय था। हम दोनों के जीवन में एक ऐसा रन्ध्र पैदा करना था, जिसके पार एक दूसरी दुनिया थी और वह दुनिया मेरा अभीष्ट नहीं थी। मेरी वांछा नहीं थी। मेरा स्वभाव, मेरा सत्य नहीं थी। मेरी आत्मा निश्चित रूप से इसके लिये तैयार नहीं थी। मेरी लालसा, मेरे संशय, मेरी उत्तेजना और मेरी आत्मा की निर्लिप्तता? यही द्वन्दव, यही द्वैत था जिसका प्रश्न वह मुझसे कर रही थी जो मैं ने उसे अभी एक दर्शन की तरह दिया था। तो? उसने पूछा। हां, मैं ने ऐसा निर्णय लिया है मैं ने कहा। मेरा स्वर धीमा था। बहुत धीमा। उसमें मेरी आत्मा की शक्ति नहीं थी। सिर्फ देह की उत्तेजक फुसफुसाहट थी। क्या? फिर कभी मैं ने अपना हाथ आगे बढाया। निर्द्‌वन्दव, निसंकोच वह मुस्कुराई। अपनी नन्‍्ही सी हथेली उसने मेरे पंजे में रख दी। मैं ने उसे दबाया। उसने मेरी आंखों में देखा। मेरे पंजे में उसकी हथेली एक चिरोटे की तरह फडफ़डाई। उसके चेहरे पर धीरे - धीरे एक सुख उतरने लगा। उसके चेहरे पर कसी खाल ढीली पडने लगी। मुझे पता था कि मैं पूरी तरह आमंत्रित हूं। मैं ने धीरे से उसे अपनी तरफ खींचा। रुको। उसने कहा। वह घास पर खडी हुई | अपने गिल्लास की बची हुई शराब उसने एक सांस में पी ली। गिल्लास घास पर लुढक़ा कर वह मेरे पास बैठ गई। बिल्ली उठने वाली है। उसने मुंडेर की तरफ इशारा किया और मेरे सीने में दुबक गई। मैं ने उसके कान पर से बालों को हटा कर उस पर अपनी जीभ फेरी, यह याद रखना इसके पहले भी हमारे बीच कुछ नहीं था इसके बाद भी कुछ नहीं होगा। बस यही, इतनी देर का सत्य है यहजितनी देर हम इसे जियेंगे। बिलकुल इतना ही। जन्मा और मर गया। मुझे अपनी आवाज पहली बार कमजोर, निरीह, कांपती हुई लगी। मुझे यह भी लगा कि जीवन के जिस अंश में आत्मा नहीं होती, वह जीवन की सिर्फ छाया होती है छद्म होता है। उसने अपना सर ऊपर उठाया। उसकी आंखें मेरी आखों के पास थीं। बहुत पास। मुझे उनका कत्थईपन दिख रहा था। चांदनी उसके चेहरे पर दिख रही थी। होंठों पर चिपका गीलापन भी। कांपती ओस उसकी फूली नसों पर थी। उसने कुछ क्षण मुझे देखा। उस इष्टि में एक महाख्यान था। सृष्टि के सारे रहस्य थे। जीवन के सारे गुहय और सूक्ष्मतम अणु थे। उस इष्टि में एक क्षण के लिये पानी उतरा। उसमें थरथराहट थी वैसे ही जैसी शाख से टूटकर गिरती पत्ती में होती है। दृष्टि का वह पानी फिर उड गया। वहां प्रेम उतर आया। मद की शिथिलता और कामना की चमक से से संतृप्त। अलग से दिखता हुआ। वह मुस्कुराई। मैने जो कहा यह उसकी स्वीकृति थी। मुझे पता था यही होगा। मुझे मालूम था मेरा कोई भी सुख उसे स्वीकार होगा। 4/13




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