सांझ | SAANJH

SAANJH by जगदीश गुप्त - Jagdish Guptaपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तुम कीन स्वप्न में आये, भर गये दूगों में हिमकन | |110 | | उस क्षण तुमको पाते ही, जल होकर बहा समर्पण | कितने दिन इन प्राणों में, अकुलाता रहा समर्पण | |111 | | सौ बार समय-सागर में, लय होंगे साँझ-सवेरे | तुम गिन न सकोगे फिर भी, धड़कने हृदय की मेरे | [112 | | सिर पर भौरो सी काली, दुख की छाया गहरी थी | सुमनावलियाँ रोती थीं, आँखों में ओस भरी थी। |113 | | झुलसी थीं उत्पीड़न से, पंखुरियाँ आतप-मारी | जलकण बन ढलक गई थीं, सौरभ की सिसकन सारी | [114 | | आँसू-शबनम के कन में, ढालते अपरिमित मद को | तुम कौन किरन से आये, रंग गये उदार जलद को | |115 | | मच गया विकल-कोलाहल, रजनी के अन्तः्पुर में | किरनों की कोमल लपटें, जब उठीं तिमिर के उर में | [116 | | ज्यों ही ऊषा तिर उतरी, धुँधली सी क्षितिज पटी पर | नवनीत-शवेत सुमनों की, मधु-वृष्टि हुई अवनी पर | |17 | | आँसू-श्रमकण से बोझिल, पलकों के पंख पसारे | उड़ गये नयन-नीड़ो से, सपनों के विहग बिचारे | |118 | | प्रहिणिल 57 / है लग ला 6 .1-16




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