विजया ( दत्ता ) | VIJAYA (DUTTA)

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय - Sharatchandra Chattopadhyay

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हंसकुमार तिवारी - Hanskumar Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ विलास की देख-रंस में जमाने से यो ही पड़े जमीदार भवन को भर अमृत होने लगी । वैलगाडियो पर लद-लद कर बनोले अनोसे कत्तबराब कलकर्तत से रोज बाते लगे । जमींदार की इकलौती बेटी गाँव में रहने के लिए था रही है, इस ख़बर का फैलना यथा कि न कैवल हृष्णपुर, बल्कि राघापुर, ब्रजपुर, दिधडा आदि अगल बगल के पाँव-सात गाँवों मे हलचल मच गई। एवं तो जमीं* दार का घर के पास बसना ही सदा से लोगों के लिए अप्रिय है, फिर रियाया तो इनके न रहने फी ही आदी रही हैं। सो नए सिरे से उनके यहाँ वसने की हवादहिश ही लोगों को एक उपद्रव-सी लगी। मैनेजर रासविह्यरी के शासन से हें कष्ठों का अभाव नही था, फिर जमीदार की बैटी के आचे के शुम अवसर पर बह कौन-कौन सा नया थुल्म ढाएगा, वह हाट-बाट घाट मे आलोचना का विषय बन गया था | जमीदार ववमाली खुद जब तक जिन्दा थे, तब तक दु लॉ के बावजूद इतनी सी सुविधा थी कि किसो तरह कलकते तक पहुंच कर उन तक दुखडा पहुचाए तो किसी को निराश नही लौटना पडता था। लेकिन जमी- दार की बिदिया की उम्र थोडी, विभाग गरम, रासबिहारी के लडके से उत्तकी शादी की चर्चा भी गाँव में अप्रचारित न थी-मेमसाहब ठहरी, स्लेच्छ, लिहाजा आगे आने वाले रासविहारी के जुल्मा की कल्पना से किसी के सम से जरा भी चन मे रही--णतेऊधारी ब्राह्मणो को भी नहीं जनेऊ विद्वीन शुद्रां को भी नही । ऐसे ही भय और चिता म्‌ वर्षा तिकव गई । शरद की शुरूआत में ही एक मधुर ग्भाव में दो बडे बेलर घुडी खुली फिटन १र जमीदार की जवाब बेटी सैक्डी मर नारियों की भाति-कौतृहलभरी निगाहों के सामने होकर हुगली स्टेशन से बाप दादे के पुरान मकान में जा पहुची । कयाली की लडकी, बठारह उसप्नीस सालप्रार कर गई, मगर शादी नही हुई--खुले आम जूता मोजा पहनती है, खाने पीने वा कोई विचार-परहेन नही, आदि-आदि लोग छिपे छिपे करने लगे और एक एक दो दो करके लोग नज- राता लिए आने तथां जान द और क्ल्याण-कामना भी कर जाने लगे । इस




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