प्रतिष्ठापूर्ण विकास | DEVELOPMENT WITH DIGNITY
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
59
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
अमित भादुड़ी - AMIT BHADUDI
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)20 प्रतिष्ठापूर्ण विकास
मांग और पूर्ति के जरिए कीमतों में प्रतिबिंबित होता है। इसके बावजूद
यद्यपि बाजार प्रणाली के इस फायदे को नौकरशाही वाले केंद्रीय नियोजन
की गलतियों से बचने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए फिर भी इस
फायदे को इतना बढ़ा-चढ़ाकर नहीं रखना चाहिए कि उससे नुकसान हो।
दो महत्वपूर्ण कारणों से एक संतुलित और कम कम्मुल्लावादी दृष्टिकोण
जरूरी है। पहला, जैसा कि कहा जा चुका है, मांग का स्वरूप आय के
वितरण पर निर्भर होता है, और वह वितरण राजनीतिक दृष्टि से स्वीकार्य
हो सकता है या नहीं हो सकता। भारतीय स्थिति में जहां व्यापक गरीबी
है, स्पष्टतया यह स्वीकार्य नहीं है। यह बाजार-आधारित मांग-पूर्ति तंत्र को
भारत में विशेष रूप से दोषपूर्ण बना देता है। सरल शब्दों में कहें तो, इसका
अर्थ है कि बाजार निर्देश देता है कि क्रयशक्ति के अनुसार किन वस्तुओं
का उत्पादन हो। इस प्रकार वह उन वस्तुओं का उत्पादन कुशलतापूर्वक
कर सकता है जो सबके लिए आवश्यक होने के बावजूद सिर्फ धनी लोगों
द्वारा खरीदी जा सकती हैं। इस बिंदु को पहले स्पष्ट किया गया था बोतल
बंद पानी के उदाहरण को लेकर । बोतलबंद पेय जल का उत्पादन कुशलतापूर्वक
विभिन्न किस्मों में किया जा सकता है, जो गरीबों की पहुंच से परे हो भले
ही गांव पेय जल के बिना ही रहें। दूसरा कारण वह रफ्तार है जिससे हल
को प्राप्त करना होगा। फिर, आम गलती यह सुझाना है कि बाजारतंत्र
मांग और पूर्ति के जरिए इस स्थिति को “देर-सबेर” सही कर देगा। यह
भी गलत है। जैसा कि बतलाया जा चुका है, रफ्तार इतनी धीमी हो सकती
है कि व्यावहारिक तौर पर अप्रासंगिक हो।
भोजन, मकान या वस्तु, स्वच्छ जल और स्वास्थ्य की देख-भाल जैसी
जीवन की बुनियादी जरुरतें अनंतकाल तक प्रतीक्षा नहीं कर सकतीं | किसी
भी वास्तविक जनतांत्रिक सरकार को इन जरुरतों को तुरंत पूरा करने की
सीधी जिम्मेदारी बिना यह बहाना किए लेनी चाहिए कि “कालक्रम में उचित
बिंदु” पर बाजार आर्थिक उदारीकरण के जरिए यह कार्य करने में सक्षम
है। उदारीकरण एवं निजीकरण के प्रति उत्साहित राजनीतिक नेता बहुधा
दावा करते हैं कि अर्थव्यवस्था के अच्छा करने के बावजूद सत्तारूढ़ सरकार
बाजार की सफलता और विफलता : कैसे, कहां, कब? 21]
चुनाव हार जाती है क्योंकि वह जनता की ऊंची होती प्रत्याशाओं को पूरा
नहीं कर पाती। वे अपने निदान में आम तौर से गलत होते हैं; अर्थव्यवस्था
के अच्छा करने का यह मतलब नहीं है कि लोग भी अच्छा कर रहे हैं।
इतना ही नहीं, जिस सरकार की आंखें और कान सिर्फ बाजार पर
लगे हों, वह गरीबों को देखने, और उनकी आवाज सुनने में विफल होगी।
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