भारतीय महिला आन्दोलन | BHARTIYA MAHILA ANDOLAN
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
52
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
दीप्ति प्रिया महरोत्रा - DEEPTI PRIYA MAHROTRA
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सावित्रीबाई भारत की सर्वप्रथम स्त्री अध्यापिका बन गईं। हस क्रांतिकार्य का प्रखर विरोध
हुआ। धर्म-पंडितों ने सावित्री को अश्लील गालियाँ देकर लांछित किया और उनपर पत्थर
तथा गोबर फेंका। किन्तु उन्होंने हार न मानी। उनके अथक परिश्रम व उत्साह से स्त्री-शिक्षा
का कार्य फलने-फूलने लगा। 1848 में फुले दम्पत्ति ने पुणे में लड़कियों के लिए पहला
स्कूल खोला। 1851 में उन्होंने दूसरा स्कूल खोला, और 1853 में तीसरा। 1848 में ही
उन्होंने लड़के-लड॒कियों के लिए मिला-जुला स्कूल भी खोला था। नारी समानता के लिए
भारत में यह अपनी तरह का सर्वप्रथम प्रयास था। जिससे भारत के महिला आंदोलन की
एक नई धारा बहने लगी। धीरे-धीरे स्कूलों में लड़कियों की संख्या बढ़ी और अन्य स्कूल
भी खुलने लगे।
महिला शिक्षा के साथ फुले दम्पत्ति ने अस्पृश्यता उन्मूलन का काम हाथ में लिया।
शूद्रतिशूद्ों पर होने वाले अन्याय की परम्पराओं का उन्होंने डट के विरोध किया।
बाल-विवाह प्रतिबंध, विधवा-विवाह को प्रोत्साहन, सती प्रथा की रोकथाम, बाल-हत्या
प्रबंधक गृह आदि क्षेत्रों में सावित्रीबाई व ज्योतिबा फूले ने बहुत काम किया। 1871 में फुले
दम्पत्ति ने बाल-हत्या प्रबंधक गृह खोला, जिसमें अनाश्रित गर्भवती महिलाओं को आश्रय |
प्रसूति व बच्चों के लालन-पालन की सुविधा मिलती थी। 1876-77 में महाराष्ट्र के भीषण
अकाल के दौरान उनके द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज ने अभूतपूर्व राहत कार्य सम्भाला।
1897 में जब ताऊन (प्लेग) की महामारी फैली तब सावित्रीबाई ने रोग निवारण केन्द्रों का
संचालन किया। स्वयं रोगग्रस्त होकर इसी काल में उनका देहान्त हो गया।
पण्डिता रमाबाई (1858-1922) भी महाराष्ट्र की ही मानवतावादी विदुषी थीं। उन्होंने नारी
शिक्षा व आश्रय के लिए लम्बे वर्षों तक महत्त्वपूर्ण काम किया। बाल विवाह व अनेक
प्रकार के शोषण व अंधविश्वास के खिलाफ उन्होंने अपनी आवाज उठाई। रमाबाई के पिता
प्रगतिवादी और विद्वान ब्राह्मण थे जिन्होंने अपनी बेटी को स्वयं पढ़ाया। रमाबाई के बचपन
के दिन जंगल में बीते, और गाँव-गाँव, शहर-शहर भ्रमण करते। 1877 के अकाल में उनके
माँ और पिता दोनों की मृत्यु हो गई। रमाबाई अपने विचार जगह-जगह पर प्रस्तुत करती
थीं। स्पष्टता, तर्क-संगिता व विद्वता के कारण उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती गई। 1880 में उन्होंने
कलकत्ता में एक शूद्र समाज-सुधारक से विवाह किया, और एक बेटी भी पैदा हुई। 1882
में ही उनके पति का देहान्त हो गया। रमाबाई पुणे आ गई और वहाँ ' आर्य महिला समाज'
को स्थापना को। 1883 में रमाबई ने ईसाई धर्म अपनाया। अध्यापन के लिए प्रशिक्षण लेने
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हालैणल गह। 1889 में उन्होंने विधवाओं के लिए 'शारदा सदन' नामक गृह व स्कूल बम्बई
॥ खोला। 1900 तक रमाबाई ने 'मुक्ति सदन! नामक ग्रामीण संस्था भी खोल ली जहाँ
पेती माडी की जाती थी। शारदा सदन में औद्योगिक प्रशिक्षण, अध्यापिका प्रशिक्षण,
[सलाई कढ़ाई इत्यादि सिखाए जाते थे। 'स्त्री धर्म नीति' व 'द हाई कास्ट हिन्दु वुमन'
(>उन्च जातीय हिन्दु महिला) पुस्तकें लिखकर पण्डिता रमाबाई ने दूर-दूर तक अपने
पगतिवादी व सकारात्मक विचार फेलाये।
माबाई रणाडे (1862-1924) ने आजीवन महिला शिक्षा हेतु संघर्ष किया। 1881 में वे
' आर्य महिला समाज' की कर्मठ सदस्या बन गईं। आगे चलकर उन्होंने 'सेवा सदन नर्सिंग
एण्ड मैडिकल एसोसिएशन ' स्थापित की।
आनंदीबाई जोशी (1865-87) ने डॉक्टरी पढ़ने की ठानी और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए
वे 1883 में अमेरिका गईं। 1886 में वे भारत लौटीं और कोल्हापुर में उत्साहपूर्वक चिकित्सा
कार्य करने लगीं। अभाग्यवश 1887 में उनकी मृत्यु हो गई और एक प्रगतिवादी महिला को
भारत ने अकाल खो दिया। परतु महिलाओं के लिए उच्च-शिक्षा का मार्ग खुल चुका था।
फ्रैन्सीना सोराबजी ने पश्चिमी भारत में महिला शिक्षा के लिए कई पाठशालाएँ खोलीं व
उनका संचालन किया। ऐनी जगन्नाथ ने 1892 में एडिनबरों से डॉक्टरी का प्रशिक्षण पूरा
किया व बम्बई में काम सम्भाला। रुकमाबाई ने भी 1895 में लंदन से डॉक्टरी की शिक्षा
सम्पन्न की और 1929 तक राजकोट के अस्पताल में कार्यरत रहीं। रुक्माबाई बाल
विवाहिता थीं। उन्होंने पति से अलग रहने का निश्चय किया। उनके खिलाफ कानूनी
कार्यवाही हुई पर वे अटल रही थीं।
उन्नीसवीं सदी के दौरान कैलाशभाषिणी देवी ने ' भारतीय नारी' पर एक ऐतिहासिक निबंध
लिखा जिसमें उन्होंने उस समय की हिन्दु महिलाओं की दयनीय स्थिति को पुरातन-काल की
हिन्दु महिलाओं की उच्च स्थिति के साथ तुलना की। 1879 में केशब चंद्र सेन द्वारा स्थापित
' आर्य नारी समाज' ने हिन्दु महिलाओं को पुरातन-काल के 'सुनहरे युग' की ओर आकर्षित
करने का प्रयास किया। इस विचारधारा के अनुसार 'आर्य-काल' में न परदा प्रथा थी न सती
प्रथा, न बाल-विवाह न बहु-विवाह प्रथा। पण्डिता रमाबाई जैसी विदुषी ने अध्ययन व शोध
द्वारा हिन्दू धर्म की अंतरनिहित रूढ़ियों को उजागर किया, और जड़ों तक पहुँचकर न्याय
की मांग की।
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