पत्थर की आवाज | PATJHAR KI AWAZ
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
276 KB
कुल पष्ठ :
10
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
कुर्रतुलऐन हैदर -QURRATULAIN HYDER
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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शंभु यादव - SHAMBHU YADAV
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)8/26/2016
हमने कनॉट प्लेस जाकर एक अंग्रेजी फिल्म देखी।
उसके अगले दिन भी।
इसके बाद मैंने एक हफ्ते तक उसके साथ खूब सैर की। वह 'मेडेंस' में ठहरा हुआ था।
उस सप्ताह के अन्त तक मैं मेजर खुशवक्तसिंह की श्रीमती बन चुकी थी।
मैं साहित्यिक नहीं हूं। मैंने चीनी, जापानी, रूसी, अंग्रेजी या उर्दू कवियों का अध्ययन नहीं किया। साहित्य पढ़ना
मेरे विचार से समय बर्बाद करना है। पन्द्रह वर्ष की आयु से विज्ञान ही मेरा ओढ़ना-बिछौना रहा है। मैं नहीं जानती
कि आध्यात्मिक कल्पनाएं क्या होती हैं और रहस्यवाद का क्या अर्थ है। काव्य और दर्शन के लिए मेरे पास न तब
समय था और न अब है। मैं बड़े-बड़े, उललझे हुए, अस्पष्ट और रहस्यपूर्ण शब्द भी प्रयोग नहीं कर सकती।
बहरहाल, पन्द्रह दिन के अन्दर-अन्दर यह घटना भी कॉलेज में सबको मालूम हो गयी थी, लेकिन मुझमें अपने
अन्दर हमेशा से एक विचित्र-सा आत्मविश्वास था। मैंने चिन्ता नहीं की। पहले भी मैं लोगों से बोल-चाल बहुत
कम रखती थी। सरला वगैरह का गुट अब मुझे ऐसी निगाहों से देखता जैसे मैं मंगल ग्रह से उतरकर आयी हूं मेरे
सिर पर सींग हैं। डा्डनिंग हॉल में मेरे बाहर जाने के बाद घंटों मेरे किस्से दुहराए जाते। अपनी इंटेलीजेन्स सार्विस
के जरिए मेरे और खुशवक्त के बारे में उनको पल-पल की खबर रहतीहम लोग शाम को कहां गये, रात को नई
दिल्ली के कौन से बालरूम में नाचे (खुशवक्त मार्के का डान्सर था, उसने मुझे नाचना भी सिखा दिया था)
खुशवक्त ने मुझे कौन-कौन से तोहंफे, कौन-कौन सी दुकान से खरीद कर दिये।
खुशवक्तसिंह मुझे मारता बहुत था और मुझसे इतना प्यार करता था जितना आज तक दुनिया में किसी भी पुरुष
ने किसी भी स्त्री से न किया होगा।
कई महीने बीत गये। मेरी एम. एस-सी. प्रिवियस की परीक्षा सिर पर आ गयी और मैं पढ़ने में जुट गयी। परीक्षाएं
होने के बाद उसने कहा, जानेमन, दिलरुबा! चलो किसी खामोश-से पहाड़ पर चलेंसोलन, डलहौजी, लेनसाउ। मैं
कुछ दिन के लिए मेरठ गयी और अब्बा से यह कह कर (अम्माजान का, जब मैं थर्ड ईयर में थी, स्वर्गवास हो गया
था) दिल्ली वापस आ गयी कि अन्तिम वर्ष के लिए बेहद पढ़ाई करनी है। उत्तर भारत के पहाड़ी स्थानों पर बहुत-
से परिचितों के मित्नने की सम्भावना थी, इसलिए हम सुदूर दक्षिण में आउटी चले गये। वहां महीना-भर रहे।
खुशवक्त की छुट्टियां खत्म हो गयीं तो दिल्ली वापस आकर तिमारपुर के एक गांव में टिक गये।
कॉलेज खुलने से एक हफ्ता पहले मेरी और खुशवक्त की जबर्दस्त लड़ाई हुई | उसने मुझे खूब मारा। इतना मारा
कि मेरा चेहरा लहूलुहान हो गया और मेरी बांहों और पिंडलियों पर नील पड़ गये। लड़ाई का कारण उसकी वह
मुरदार ईसाई मंगेतर थी जो न जाने कहां से टपक पड़ी थी और सारे शहर में मेरे खिल्ांफ जहर उगलती फिर रही
थी। अगर उसका बस चलता तो मुझे कच्चा चबा जाती। वह चार सौ बीस लड़की महायुध्द के दिनों में फौज में थी
और खुशवक्त को तर्मा के मोर्चे पर मिली थी।
खुशवक्त न जाने किस तरह उसे उसके साथ शादी करने का वचन दे दिया था, पर मुझसे मिलने के बाद वह अब
उसकी अंगूठी वापस करने पर तुला बैठा था।
4/10
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