भुवनेश्वर - साहित्य निर्माता | BHUVNESHWAR - SAHITYA NIRMATA

BHUVNESHWAR - SAHITYA NIRMATA by गिरीश रस्तोगी - Girish Rastogiपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भुवनेश्वर का घर का नाम मदन था। उनकी जन्मतिथि के सम्बन्ध में कई प्रकार की धारणाएँ हैं, जिनसे भ्रम पैदा हुए हैं। विपिन कुमार अग्रवाल कारखाँ में उनका जन्म 1910 में लिखते हैं। इस तिथि का समर्थन भुवनेश्वर के मित्र कृष्णनारायण कक्‍्कड़, कृष्णमोहन सक्सेना, शुकदेव सिंह भी करते हैं। साहित्य अकादेमी से प्रकाशित इनताइक्लोपीडिया ऑफ़ इण्डियन लिटरेचर में भी जन्म वर्ष 1910 बताया गया है। वस्तुतः श्रान्तियाँ पैदा होती हैं भुवनेश्वर के उस पत्र के कारण, जो उन्होंने साहित्यकार उपेन्द्रनाथ अश्क को लिखा था। उन्होंने लिखा है--जन्म 6 जून 1914 ई.। इस पत्र में पहली बार भुवनेश्वर की जन्मतिधि का उल्लेख था, लेकिन पत्र में दी गयी अन्य जानकारियाँ उपयुक्त न होने के कारण और कोई पुष्ट प्रमाण न मिलने के कारण उसे सन्देहग्रस्त माना गया। शाहजहाँपुर के गवर्नमेण्ट स्कूल में भुवनेश्वर पढ़े थे। वहाँ के स्कॉलर्स रजिस्टर के अनुसार राजकुमार शर्मा, संस्थापक-सचिव, भुवनेश्वर प्रसाद शोध-संस्थान, शाहजहाँपुर, भुवनेश्वर की जन्मतिथि 20 जून 1912 निश्चित करते हैं। यह तिथि प्रमाणों द्वारा पुष्ट और निर्विवाद है। भुवनेश्वर की बाल्यावस्था अभावों और अकेलेपन में बीती। सौतेली माँ का व्यवहार उनके प्रति अच्छा न था। पिता आरम्भ में उनका, उनकी शिक्षा का बहुत ध्यान रखते थे, पर अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों, दबावों और आर्थिक तंगी के कारण वे धीरे-धीरे भुवनेश्वर से विमुख होते गये। इस सर्वग्राही अभाव के वे साक्षात्‌ भोक्ता रहे। वे उपेक्षित होते गये और बचपन में ही एकाकीपन से घिरते गये। भुवनेश्वर अपने माता-पिता से कटते गये, पर अपने चाचा महामाया प्रसाद और अपनी चाची से उन्हें अधिक स्नेह प्राप्त होता रहा। प्रमाण बताते हैं कि भुवनेश्वर अपने माता-पिता से 'नेगलेक्टेड” रहे और चाचा-चाची ने उनके इस अभाव की अपने प्यार-ममता से पूर्ति की। एक ही घर में रहने के कारण भुवनेश्वर की सभी ज़रूरतें चाचा महामाया प्रसाद पूरी करते थे, किन्तु 1925 में अचानक प्लेग के कारण महामाया प्रसाद की मृत्यु हो गयी। 12 वर्ष से भी कम आयु के भुवनेश्वर के हृदय पर इस सदमे का इतना गहरा आघात लगा कि वे ख़ामोश और आत्मकेन्द्रित होते चले गये | उनके घनिष्ठ मित्रों का कहना है कि इस आघात को उन्होंने इतनी गहराई से महसूस किया कि उनका हँसी-मज़ाक़, उनकी चुहल से भरी आकर्षक बातें जैसे कमरे के कोने में, उदासी में बन्द हो गयीं। कुछ समय बाद भुवनेश्वर की चाची भी अपने बच्चों-सच्चिदानन्द, करुणा और मनोरमा के साथ इलाहाबाद चली गयीं। भुवनेश्वर परिवार में बिलकुल अकेले पड़ गये। उन्हें समझनेवाला, उनका पक्ष लेनेवाला भी कोई नहीं रह गया। इस तरह उनकी किशोरावस्था ही बिखर गयी, जो कि सबसे नाजुक समय होता है। कहते हैं, भुवनेश्वर कभी किसी से अपने परिवार के बारे में बात नहीं करते थे। क्रमशः भुवनेश्वर : जीवन और व्यक्तित्व / 15




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