संस्कृति शिक्षा और लोकतंत्र | SANSKRITI, SHIKSHA AUR LOKTANTRA

SANSKRITI, SHIKSHA AUR LOKTANTRA by चंद्रभूषण - CHANDRABHUSHANनरिंदर सिंह -NARINDAR SINGHपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संस्कृति शिक्षा और लोकतंत्र जरा-भी कम नहीं । यह एक प्रजाति के बतौर हमारी निरंतरता तुनिश्वित करने को हमारी क्षमता में कटौती करता है और इस तरह सभ्यता की दृष्टि से सर्वनाशी स्वरूप ग्रहण कर लेता है। देकार्तवाद का उत्थान मनुष्य के अंदर मनुष्यता के पतन का परिचायक है । जैसा कि लेविस मंफोर्ड ने कहा है, यह मनृष्य के वानर स्तर तक पतन का परिचायक है: लगूरों की तरह वे सब कुछ नोचने-खलसोटने पर मादा हो गए हैं संक्षेप में यह कि वे अपनी मानवीय क्षमताएं खो देते हैं और जैसा कि स्वाभाविक है, और समतुल्य किसी मानसिक संपदा का सृजन भी नहीं कर पाते ।5 द आइए हम अपने दिमाग को देकार्त द्वारा स्थापित उस विभाजक रेखा के अभिशाप से मुक्त करें जिसके मुताबिक दुनिया रेत कोजीतांप और रेस एक्सटेंसा में, यानी सोचने वाली वस्तु और विस्तारित वस्तु में विभाजित है। जाहिर है कि इस द्वैतवाद का आविष्कार उसने नहीं किया था ।फिर भी प्लेटो द्वारा इसकी शुरुआत के बाद पहली बार देकार्त ने इसे एक ऐसी धार दी जो इसके पहले उसमें मौजूद नहीं थी । वह यह कहते हुए इसे तीक्षणता के चरम स्तर तक ले गयाः 'शरीर की अवधारणा में ऐसा कुछ भी शामिल नहीं है जो मस्तिष्क से संबंधित हो और मस्तिष्क की अवधारणा में ऐसा कुछ भी शामिल नहीं जो शरीर से संबंधित हो” (सी.एस. एम. प्र, 58)। इस किस्म का अंतर अवधारणात्मक स्तर पर बरकरार रखा जा सकता है लेकिन इस स्तर पर भी कोई तर्कपूर्ण ढंग से इस बात का दावा नहीं कर सकता कि एक दूसरे से अलग रहते हुए शरीर और मस्तिष्क एक दूसरे से _अतबद्ध भी हैं। कोई नहीं, यानी देकार्त को छोड़कर कोई नहीं । एक बिंदु पर जाकर यह एहसास करते हुए कि उसका शरीर और मस्तिष्क एक दूसरे से घनिष्टतापूर्वक जुड़े हैं, अगले ही वाक्य में वह ऐसा दावा भी कर देता है कि वह, यानी उसका मस्तिष्क उसके शरीर के बिना भी रह सकता हैः 'यह सच है कि मेरे पास एक शरीर हो सकता है (या ऐसा पूर्वानुमान किया जा सकता है कि मेरे पास शरीर है), एक शरीर जो घनिष्टतापूर्वक मुझ से जुड़ा है। लेकिन एक तरफ मेरे पास अपने “स्व” की इस रूप में एक स्पष्ट चेतना है कि मैं एक सोचने वाली अविस्तारित चीज हूं, दूसरी तरफ मुझे अपने शरीर के बारे में भी स्पष्ट जानकारी है जो एक विस्तारित और न सोचने वाली चीज है। और इत्त तरह यह तय है कि मैं अपने शरीर से बिलकुल भिन्न हूं और इसके बगैर भी रह सकता हू / (सी.एस.एम. व, 54) । लेकिन यह “इस तरह” किसलिए ? इसके पीछे एक स्पष्ट उद्देश्य हो सकता था कि इस तरह वह इस हास्यास्पद आकांक्षा के साथ 24 संस्कृति शिक्षा और लोकतंत्र कि पेरिस के पवित्र धर्मशास्त्र विभाग के डीन और डाक्टर उससे प्रभावित हो जाएंगे और उसकी किताब मेडिटेशंत्रपर अपनी मुहर लगा देंगे, आत्मा की अमरता स्थापित कर रहा था। लेकिन वे पसीजे नहीं और संभवतः नाराज भी हुए | वजह चाहे जो भी हो, मेरे लिए यह थोड़ा अजीब है कि प्रधान तकवादी माना जाने वाला एक आदमी; एक ऐसा आदमी जो इतिहास की महानतम दार्शनिक मेधाओं मे से एक ” माना जाता है और जो वास्तव में आधुनिक दर्शन का संस्थापक है, इस तरह का वक्तव्य दे सकता हैः “इस तरह मैं जानता हूं कि मैं एक ऐसा पदार्थ हूं जिसका संपूर्ण अस्तित्व और स्वभाव सिर्फ सोचना है, और जिसे किसी स्थान की ज़रूरत नहीं; अस्तित्व के लिए किसी भौतिक चीज़ पर निर्भर रहने को जरूरत नहीं । इस तरह यह मैं यानी वह आत्मा जिसके चलते मैं, मैं हूं, शरीर से पूरी तरह भिन्न है और शरीर की अपेक्षो इसको जानना ज्यादा आसान है तथा अगर शरीर न हो तो भी यह रहेगा” (सी.एस.एम. 1, 127 जोर मेरा है) । इस उद्धरण में इटेलिक अंश का अर्थ सिर्फ यह निकलता है कि सोचने के लिए दिमाग की जरूरत नहीं है या बेहतर है इसे यूं कहें कि दिमाग के लिए दिमाग की जरूरत नहीं । द ु मैं कोई दार्शनिक नहीं, लिहाजा यह नहीं जानता कि ऐसे दावे को कितना दार्शनिक महत्व दिया जाना चाहिए | लेकिन यह जानता हूं कि जान काटिघम, 'एक दार्शनिक हैं और आज देकार्त पर अधिकृत विद्वान माने जाते हैं, देकार्त की कुछेक दार्शनिक रचानाओं का अनुवाद भी किया है । वे इन बातों को “अनर्गल' मानते हैं ।? नोम चोम्स्की ऐसी किसी समस्या से बचने के लिए “माइंड' क॑ बारे में बात न करके 'माइंड ब्रेन के बारे में बात करते हैं। लेकिन अगर उस ऐतिहासिक परिवेश को ध्यान में रखें जिसमें देकार्त जी रहा था, तो मस्तिष्क की पहचान और स्वायत्तता पर उसका जोर, सोचने वाले 'मैं', कोजीतों पर इस हद तक जोर कि वह इतना आत्मस्थ और आत्मनिर्भर हो जाए कि दिमाग जैसी भौतिक वस्तु भी उसके लिए जरूरी न रह जाए, इस लिहाज से जरूरी लग सकता है कि इसके जरिए वह उस अतार्किकता के राज से टकराता रहा होगा जो जड़ सामंती सत्ता और कैथलिक चर्च के जड़सूत्रों तथा तत्कालीन यूरोप में व्याप्त अंधविश्वासों के बतौर फैला था । लेकिन यह एक विडंबना है कि वह तार्किकता और व्यक्तिवाद जिसके उदयकाल में वह खड़ा हुआ, हमारे समय तक आते-आते विक्षिप्तता की _ ऐसी तानाशाही में बदल गया है कि हम मानव इतिहास की निरंतरता को लेकर भी आश्वस्त नहीं रह गए हैं। 2




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