श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ 1970-1980 | SHRESTH HINDI KAHANIYAN 1970-1980
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
79
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
खगेन्द्र ठाकुर -KHAGENDRA THAKUR
No Information available about खगेन्द्र ठाकुर -KHAGENDRA THAKUR
पुस्तक समूह - Pustak Samuh
No Information available about पुस्तक समूह - Pustak Samuh
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)14 श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-80)
मे मं मर
सूखे-भीगे, झाड़-झक्खड़ भरे, तपते-ठिठुरते बरसते-रिसते उनके दिन और रात वहीं
पोखर में खपते थे। वहीं बच्चे जनममते, किलकिलाते, बिलबिलाते, बढ़ते और किसी
को अपने बेहाल-बेघर होने का गुमान तक न होता। पर इस बार पूस, ठंडी आग
बखेरता आया। ठंडी के साथ बेधने वाली बयार उनके कंकाल को खँगाल गई। बूढ़े
कँपकँपाने लगे। टाबर दाँत किटकिटाते, बड़े-मोटियार झुरझझरी नहीं झेल सके और
नन्हें तो लंबे ही हो गए।
वैसे अनोखा-अनभोगा कुछ भी नहीं था। ऐसे मौसम पहले भी आये थे और
ठसक बता बीत गए थे। पर इधर जब से रैन-बसेरों की बात पोखर टोले में चली, तभी
से सब एक ठौर जुड़े थे और रातें उधर ही रैन-बसेरा में काटने की ठानी थी।
रैन-बसेरे में आज पहली ही रात काटकर टोले के भाइले-भाइयों और मा-भैणों
ने आँखें खोली थीं। बसेंरे के फेराव में उन्हें अजीब-सा लगा, जैसे दूजे देस नहीं दूजे
लोक आ गए हों।
पेटी में बंद मुर्गे की बाँग के साथ ही टोले में तू-तू मैं-मैं , रोना-पीटना मच जाता
था। यही उनके जीने-जागने की पहचान थी। आदमी लुगाई के झोंटे नोचते, लुगाई
मरद की मूँछ उखाड़ लेती थी और फिर एक-दूसरे की आसकी-मासकी बखानी
जाती।
“तू तेरे भेण के मरद के साथ सोई।”!
“तूने तेरी भौजी संग मूँ काला किया।”!
“तू चोर।'!
“तू छिनाल।'!
“तेरा बाप धाड़वी।''
“तेरी माँ के चलित्तर देखे।''
“ये मेरा मूत नी तेरे भाई का तुखमा।''
“ऐ, लाज मर, में नी बोल दूँ, तेरा मृत तेरी भेण की कोख।''
“ओ चंडिये।''
ओ रंडुए।”!
आवाज की अर्थी 15
“खसमखानी, आदमखोर।''
“'लुगाई का रज पी ली, नीच।”!
पोखर टोले में यही सब चलता। फिर साँझ को जुटाए फूस-फाचर, कागज-
कूड़ा, टहनी-ठदूँठे धधकते, बीड़ियाँ सुलगतीं। रात के भीगे पोस्त के छिलके आग पर
धरे काले-कठियाए डिब्बे में खौलते, खुदबुदाते, फिर चीकट धोती के छोर से छन-
छनाकर टूटे हैंडिल के मगों में ढल जाते। पोस्त की गंधियाई भाष में वे एक-दूसरे का
मुँह जोहते और कभी चहक और कभी अनबोले बोल के साथ उसके अपने सूखे गले
की घाटी में उडेंल लेती। आकाश की काली टूटकर जब उनके आँखों के डोरों में बस
जाती तो वे पोखर-पुलिया से सूरज का चढ़ना देखते। बूढ़े-बड़े मोटियार, नाले पर
खड़े चायवाले सिंधी के खोखे के आगे जा बेठते। फिर बोल के गोल फूटते, फिर
झंझट-झग्गड़ होता। हाथापाई तक की नौबत आ जाती। किसी को अजब नहीं लगता।
सब जानते थे, ये रोज होता है। लोग देखकर भी अनदेखे निकल जाते। चाय की सुड़क
के साथ फिर खों-खों होती, फिर दाँतों में बीड़ियाँ दबा टोली बिखर जाती, रोजी-
रुजगार के लिए। किसी के कंधे पर टीन के कनस्तर पीटने, ठीक करने के औजारों
की पेटी झूलती, किसी के सर पर चीनी-काँच के बरतन और फटे-जूने कपड़े होते।
कोई कागज-गत्ते के खिलोने लिए होता। दिन में कभी-कभार मिलना होता, साँझ पड़े
फिर जुड़ते...फिर जिंदगी बजने लगती।
“तू पी आया कमाई, तेरा चाँचर राँधूँ?''
“तू खा आई कबाब-कचालू, अब खा गू-गोबर।
“मूँडकटी मा को, बीड़ी-चा चटानी थी तो उसी के संग सोता; राँड क्यूँ लगाई
गले? '!
“बाप बूढ़ल के मूँ में दारू क्यों मूता?'” जा उसी से अपनी टाँग गरमा।'!
“मृत हरामी का दूध मेरा,'' बोल के साथ कोई माँ चिथयाई छाती दूँस बच्चे को
धबक देती।
रात के बसियाए गले में, भोर-किरन के पथराए जाने पर भी जब पोस्त-रस न
उतरा तो रैन-बसेरे में ही बकझक की झड़ी लग गई। आज वे सरकार और नेताओं के
माँ-बापों को बखान रहे थे। उनसे रिश्ता-नाता जोड़कर चिल्ला रहे थे- बस एक टटरा
गोदाम सा खोल दिया और बकरों-बेलों की जूँ भर दिया सबको। चा-पानी कुछ भी
नहीं। कोई नौ बजे प्रबंधक जी आये तो कुहराम मचा था। गंदगी अलग। सब देख-
User Reviews
No Reviews | Add Yours...