बच्चे की भाषा और अध्यापक | BACHCHE KEE BHASHA AUR ADHYAPAK

BACHCHE KEE BHASHA AUR ADHYAPAK  by कृष्ण कुमार - Krishn Kumarपुस्तक समूह - Pustak Samuh

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

कृष्ण कुमार - Krishn Kumar

No Information available about कृष्ण कुमार - Krishn Kumar

Add Infomation AboutKrishn Kumar

पुस्तक समूह - Pustak Samuh

No Information available about पुस्तक समूह - Pustak Samuh

Add Infomation AboutPustak Samuh

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
और उसके पिछले अनभव कहानी के प्रति बच्चे की प्रतिक्रिया को प्रभावित करते हैं। हो सकता है कि बच्चा किसी चरित्र की कल्पना कहानी में दिए विवरण से एकदम अलग रूप में करे। सम्भव है कि उसे कोई घटना भावनात्मक रूप से बाकी सब घटनाओं से ज्यादा सार्थक लगे। कहानीं और उसके चरित्रों की ऐसी पनर्रचना करना, जो स्वयं को सार्थक लगे, हर बच्चे का मौलिक अधिकार है। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि बच्चा पष्ठ पांच पर दी गई कहानी में अध्यापक की कल्पना एक महिला के रूप में करे। ऐसा अध्यापक, जो चरित्रों की कल्पना किसी भी ढंग से करने के बच्चे के अधिकार को स्वीकार करता है बच्चों को इस बात की परी आजादी और अवसर देगा कि वे कहानी के बारे में किसी भी तरह से बात करें-उसे तोड़ें-मरोड़ें, उसे बढ़ाएं, उसके चरित्रों की अदला-बदली करें या स्वयं कहानियां गढ़ें। ऐसे अवसर कहानी कहने के फौरन बाद देना जरूरी नहीं है। प्रायः ठीक यही रहता है कि कहानी सनाने के बाद कोई और एकदम अलग गतिविधि शुरू की जाए। 5 अभिनय करना कहानी और नाटक में सम्बन्ध है, इसलिए अध्यापक आसानी से एक को दसरे से जोड़ सकता है। कहानी की ध्यानपर्वक सन रहा बच्चा उसमें चित्रित भमिकाओं को चपचाप ग्रहण कर रहा होता है। यही चीज नाटक में होती है, पर अधिक मखर रूप में। नाटक में बच्चों को विभिन्‍न भूमिकाओं को बातचीत हाव-भाव और शरीर के जरिए प्रस्तत करने का मौका मिलता है। कहानी के श्रोता की तरह नाटक में भाग लेते वक्‍त भी उन्हें स्वयं को किसी दसरे पर आरोपित करना होता है और उसकी निगाह से चीजों को देखना होता है। फर्क यही है कि नाटक में यह ज्यादा सक्रियता पर्बक करना होता है, कत्पित स्थिति और चरित्रों के अनभव शब्द और हाब-भाव इंढने पड़ते हैं। इस सब में तरतबद्धि से अभिनय करने के लिए सनहरा मौका रहता है जो नाटक को बातचीत के विस्तार के लिए इस्तेमाल करने का मछः आधार है। दर्भाग्यवश स्कलों में होने वाली ज्यादातर नाटकीय गतिविधियों में त्रतब॒द्धि के लिए जगह नहीं होती। बच्चों को निश्चित भमिकाएं दे दी जाती हैं और उन्हें संवाद याद करने को कह दिया जाता है। नाटक का उपयोग किसी त्यौहार थ्रा अतिथि के आगमन जैसे खास अवसरों के लिए किया जाता है।नाटक के इस उपयोग के भी कछ न कछ फायदे तो होंगे ही, पर इससे बच्चों की भाषा के विकास में कोई खास मदद नहीं मिलती। थोड़े-से बच्चे ही नाटक में हिस्सा लेते हैं, बाकी सिर्फ देखते हैं। तैयारी और अंतिम प्रदर्शन के दौरान लगातार सबको यह डर बना रहता है कि कोई गलती त हो जाए। ऐसे नाटकों में आजादी और आनन्द की गंजाइश नहीं रह जाती। एक भाषायी गतिविधि के रूप में नाटक के इस्तेमाल के लिए ये दो चीजें-आज़ादी और आनन्द-बहुत ज़रूरी हैं। जो अध्यापक नाटक का भाषा शिक्षण में उपयोग करना चाहते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि नाटक बच्चों के लिए कोई विशेष या निराली चीज नहीं है-वह तो उनकी जिन्दगी का भाग है। नकल उतारना, किसी चीज को बढ़ा-चढ़ों कर बताना, स्वांग करना जैसी नाटकीय य॒क्ततियों का प्रयोग बच्चे करते ही रहते हैं। बच्चों के अपने पारम्परिक खेलों में भी नाटक का एक विशेष स्थान रहता है। ऐसा बच्चा मश्किल से मिलेगा जिसमें नाटकीय कौशल न हो। पर अनेक बच्चे अपने नाटकीय कौशल का कक्षा में प्रयोग करने को उत्सक नहीं होते। उन्हें लगता है कि कक्षा इसके लिए ठीक जगह नहीं है। ऐसा माहौल जिसमें नाटक सम्भव और सही लगे, कक्षा में अध्यापक की पहल से ही जन सकता है। पर माहौल बनाने की कोई एक तकनीक नहीं है। आप इसके लिए धीरे-धीरे प्रयास कर सकते हैं। और इसके लिए जरूरी है कि आप बच्चों को स्वभाविक रूप से यथार्थ जिन्दगी के बारे में बात करने को प्रोत्साहित करें, बच्चों की बातचीत को ध्यान लगाकर सनें और मधुर व्यवहार करें।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now