ह्रदय की परख | HRIDAY KI PARAKH

HRIDAY KI PARAKH by चतुरसेन वैद्य - CHATURSEN VAIDYAपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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चतुरसेन वैद्य - CHATURSEN VAIDYA

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दूसरा परिच्छेद १५ घोरेन्घोरे उज्ञका जंगल से घूसना, कुंज में बैठकर फूल गूँथना ओर पक्तियों की चदचहाहट को ध्यान से सुनना प्रायः छूट ही स्रा गया | अब उसका अवकाश का साथ समय जस अंधेरो गुफा मे था उसी पींपल के बृच्ष के नोचे पुस्तक पढ़ने में लगता था । जब दोपहर में सोजन के बाद सारे गाँव में सन्नाटा छा जाता, लोग विश्राम करने लगते, तव सरला वहां बेठो-बैठो पुराने प्थों के पत्र उल्लह्म-पत्ञटा करती थी | लोऋनाथ जब खेत से घर छौटकर पुकारता--“बेटी !”, तो देखता, छार बाहर से बंद है, बेटी वहाँ नहीं है । तब वह चहीं गुफा में जाकर देखता, उसकी बेटी स्थिर भाव से किखीं पत्र पर नजर डाल रहो है। तोछनाथ सधुर तिरस्कार से कहता-- यह क्‍या पागल- पन है सरत्ता ! खाना-पीना कुछ नहों, जब देखो तस्रो कार में आँखे गड़ाए है---इन काग़ज़ों में क्या रक्खा है ? सरत्ता सर- लता से उठ खड़ी होती, और बूढ़ें की डेंगल्ली पकड़कर कहती--- “काह काका ! भोजन तो बनाकर रख आई थो, तुमते अभी नहीं खाया ११? “कहाँ ? तू तो यहाँ बैठो हैं !” फिर घर आंकर दोनो भोजन करते । गाँव के लोग न-ज्ाने क्‍यों, छुछ सरक्ला से छरते-से थे । उसकी दृष्टि कुछ ऐसी थी कि सरला से न कोई आँख दी मिला




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