जिसने उम्मीद के बीज बोये | THE MAN WHO PLANTED TREES

THE MAN WHO PLANTED TREES by अरविन्द गुप्ता - ARVIND GUPTAजीन गिओनो - JEAN GIONOपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दस हजार पेड अब कितने बडे हो गए होंगे। मैंने तमाम लोगों को जंग के दौरान मरने देखा था। अगर कोई कहता कि वह गड़ेरिया अब मर चुका है, तो इस बात को मानने में मुझे कोई दिक्कत न होती। भला पचास-साठ साल का बूढ़ा मरने के अलावा और कर की क्‍या सकता है। पर वह गड़ेरिया मरा नहीं था। वह न केवल जिंदा था, बल्कि एकदम भला-चंगा था। उसके काम में थोड़ी बदल जरूर आई थी। उसके पास अब केवल चार भेडें थीं परन्तु सौ मधुमक्खियों के छत्ते थे। उसने अपनी भेडों को बेंच दिया था। उसे डर था कि कहीं भेडें उसके नये पौधों को खा न जायें। मैंने स्पष्ट रूप से देखा कि महायुद्ध से उसके कामकाज में कोई फर्क नहीं पड़ा था। वह उस भीषण लड़ाई से एकदम बेखबर था और लगातार बीज बो रहा था और पेड लगा रहा था। 1910 में लगाए पेड अब इतने ऊंचे हो गए थे कि उनके सामने हम दोनों बोने जेसे लग रहे थे। हरे, लहलहाते पेड़ों का दृश्य बस देखते ही बनता था। इस असाधारण बदलाव का वर्णन करना भी मेरे लिए संभव नहीं हे। हम सारा दिन, चुप्पी साधे इस हरे-भरे जंगल में घूमते रहे। हरे-भरे पेड़ों को यह वादी अब ग्यारह किलोमीटर लम्बी और तीन किलोमीटर चौड़ी हो गई थी। यह सब कुछ एक अशिक्षित गडेरिए के दो हाथों की कड़ी मेहनत का फल था। उसकी इंसानियत और दरियादिली देख कर मेरा दिल भर आया। मुझे लगा कि अगर कोई आदमी चाहे तो लड़ाई और तबाही का रास्ता छोड़ कर वह भी भगवान की तरह एक प्यारी और सुंदर दुनिया गढ़ सकता हे। वह दुनिया में हो रही हलचल से एकदम बेखबर अपने सपनों को साकार कर रहा था। हवा में लहलहाते चीड़ के असंख्यों पेड़ इस बात के मूक गवाह थे। उसने मुझे कुछ देवदार के पेड़ दिखाए जिन्हें उसने पांच बरस पहले लगाया था। उस समय में फ्रंट पर लड़ रहा था। उसने इन पेड़ों को घाटी की तलहटी में लगाया था, जहां की मिट्टी में अधिक नमी थी। इन पेड़ों की जड़ों ने मिट्टी को बांधे रखा था। उनकी चौड़ी पत्तियां छतरियों की तरह धूप को रोक रही थीं और जमीन को तपने से बचा रहीं थीं। इस बंजर जमीन में पेड़ों के लगने से एक नई जान आई थी। परन्तु उसके पास यह सब देखने के लिए वक्‍त ही कहां था। वह अपने काम में इतना व्यस्त जो था। परन्तु वापिसी में, मुझे गांव के पास कुछ झरनों में से पानी की कलकल सुनाई दी। ये झरने न जाने कब से सूखे पडे थे। पेड़ों के लगने का यह सबसे उत्साहजनक परिणाम था। बहुत साल पहले इन नालों में अवश्य पानी बहता होगा। जिन खंडहर हुए गांवों का जिक्र मैंने पहले किया था, वह शायद कभी इन नालों के किनारे ही बसे होंगे। हवा भी बीजों को दूर-दूर तक फैला रही थी। पानी के दुबारा बहने से नालों के किनारों पर अनेक प्रकार के पौधे और घासें उग आई थीं। तरह-तरह के बीज जो मिट्टी की चादर ओढे सो रहे थे अब अपनी नींद से जागे थे। जंगली फूल अपनी रंग-बिरंगी आंखों से आसमान को ताक रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे जिंदगी जीने में कुछ मतलब हो। पर यह बदल इतनी धीमी और प्राकृतिक गति से हुई थी कि उसे मानने में कोई अचरज नहीं लगता था। खरगोश और जंगली सुअर के शिकारियों ने इन पेड़ों के सैलाब को देखा अवश्य था। परन्तु उन्होंने उसे पृथ्वी की सनक समझ कर भुला दिया था। तभी तो गडेरिए के काम में किसी ने कोई दखल नहीं दी थी। अगर उसे किसी ने देखा होता तो अवश्य उसका विरोध हुआ होता। परन्तु उसे ढूंढ पाना बहुत मुश्किल था। सरकार में या आसपास के गांवों में, कभी कोई सोच भी नहीं सकता था कि वह विशाल जंगल किसी ने अपने हाथों से लगाया था। इस अनोखे इंसान के व्यक्तित्व का सही अनुमान लगाने के लिए यह याद रखना आवश्यक है कि वह एकदम अकेला था, और एक सुनसान इलाके में अपना काम करता था। उसके एकांत माहौल में इतनी खामोशी थी कि अंत में वह बोलना-चालना भी भूल गया। शायद यह भी संभव है कि उसकी जिंदगी में अब शब्दों की जरूरत भी नहीं रह गई थी। 1933 में पहली बार एक फारेस्ट रेंजर भूले-भटके उस तक पहुंचा। रेंजर ने उसे उस आदेश से अवगत कराया




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