अनौपचारिका -फरवरी 2012 | ANAUPCHARIKA HINDI MAGAZINE - FEB 2012

ANAUPCHARIKA HINDI MAGAZINE - FEB 2012 by पुस्तक समूह - Pustak Samuhरमेश थानवी -RAMESH THANVI

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रमेश थानवी -RAMESH THANVI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लेख मेरे अनुभव की गठरी से डॉ. नरेन्द्र शर्मा कुसुम एक शिक्षक अपने अनुभव की गठरी में क्‍या रखता है ? कितना स्वाध्याय ? कितनी साधना ? कितना वात्सल्य ? कैसी जीवनदृष्टि और कैसी विद्यार्थी-वत्सल शिक्षा ? शिक्षक की गठरी में सब कुछ होता है। कुछ प्रयोग, कुछ प्रेम, थोड़ी सी डांट-फटकार और वात्सल्य भरा ऐसा गुस्सा जो पग-पग पर डपटता रहे और कच्ची माटी को थप-थपाता रहे। एक अलग ही जिन्दगी होती है शिक्षक की। पूरा जीवन शिक्षा की एक प्रयोगशाला होता है। बहुत बार अहंकार भी उसे आ घेरता है क्योंकि उसके पढ़ाये छात्र सातवां आसमान तक छू लेते हैं। फिर भी शिक्षक की विनम्रता बेमिसाल होती है। ऐसी सब बातें एक अध्यापक की जिन्दगी से उधार लेकर हम यहां परोस रहे हैं । पाठकों के लिये। ० सं. मे जो कुछ भी लिखने जा रहा हूं मे उसको लेकर मैं बड़े पशोपेश में हूं। मुझे डर है कि कहीं यह सब कुछ आत्मवृत्त या आत्मस्तवन बनकर न रह जाये। पर अपनी बात को कहते कहते आत्मवृत्त से बचा भी कैसा जा सकता है। जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो मेरे जेहन में ढेर सारी बातें स्म्ृतियों के रूप में कौंध जाती हैं। इन्हीं स्पृतियों और अनुभवों को मैं सभी के साथ बांटना चाहता हूं। मैंने अपना जीवन शिक्षक के रूप में लगभग आधी सदी पूर्व प्रारंभ किया था। शुरुआत एक स्कूली शिक्षक के रूप में हुई। बाद में एक कॉलेज शिक्षक बना। कालान्तर में महाविद्यालयों में प्राचार्य भी रहा। इस प्रकार से मेरे अनुभव दोनों शिक्षा-स्तरों स्कूली और उच्च शिक्षा से जुड़े हुए हैं। अगर इसे कोई गर्वोक्ति न समझा जाये तो कहना चाहूंगा कि मैंने शिक्षक बनना किसी विकल्पहीनता की स्थिति में स्वीकार नहीं किया था। छठे दशक के प्रारंभिक वर्ष में मुझे गृहमंत्रालय के सेन्ट्रल इन्टैलीजेंस ब्यूरो के लिए चयनित कर सेन्‍्ट्रल पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज माउन्ट आबू में प्रशिक्षण के लिए भेजा गया था। पर एक माह के प्रशिक्षण के बाद, छह महीनों के प्रशिक्षण को अधूरा छोड़कर मैं शिक्षक बन गया था। मेरा उस नौकरी में मन नहीं लगा क्योंकि मुझे भीतर से लग रहा था कि एक शिक्षक के रूप में मुझे अधिक संतोष मिल सकेगा। मैं प्रारंभ से ही यह महसूस करता रहा हूं कि एक शिक्षक का कार्य बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम है। यदि कोई शिक्षक विपथ होकर अपनी जिम्मेदारी न निभा पाये तो इससे बड़ी कोई त्रासदी नहीं हो। भाव मेरे मन में सदैव उपस्थित रहा है और मैंने मनसा-वाचा-कर्मणा कोशिश की है कि मैं अपने छात्रों, उनके अभिभावकों, समाज और राष्ट्र की अपेक्षाओं , आकांक्षाओं और आशाओं पर यथासंभव खरा उतरू। स्वधर्म निधन श्रेय: में मेरा सदा विश्वास रहा है। यह सब कहने का मेरा अभिप्राय एक समर्पित शिक्षक के रूप में अपनी बात पूरी ईमानदारी से कहने का प्रयास है। मुझे यह कहते हुए परम संतोष है कि मेरी शिक्षा-यात्रा (एक शिक्षक के रूप में) हर दृष्टि से सफल एवं सार्थक रही है। शिक्षक के रूप में मुझे जिस उत्कृष्टता और समर्पण-भाव की तलाश थी वह मुझे भरपूर मिला। संतोष, सम्मान-दोनों ही मिले। अपने छात्र-छात्राओं के सफल शिक्षा-क्रम, उनकी जीवनवृत्तियां तथा उनके द्वारा शिक्षा के दौरान प्राप्त किये संस्कार, जिनमें मेरी यरत्किंचित भूमिका रही- आज अपनी सेवानिवृत्ति के ग्यारह वर्षों बाद जब मैं अपने शिक्षकीय जीवन का मूल्यांकन करता हूं तो मुझे एक शिक्षक होने का कोई अफसोस नहीं है। फरवरी, २०१२




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