ग्रहणशील मन | GRAHANSHEEL MAN

GRAHANSHEEL MAN by पुस्तक समूह - Pustak Samuhमरिया मांटेसरी - MARIA MONTESSORIसरला मोहनलाल - Saralaa Mohanlal

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मरिया मांटेसरी - MARIA MONTESSORI

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सरला मोहनलाल - Saralaa Mohanlal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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20 ग्रहणशील मन होती है। इसके पहले कि वह यह समझे कि शब्दों की व्यवस्था से ही अर्थ हर उसमें तक करने की शक्ति होनी चाहिए | वह भी बच्चे में नहीं होती कक व अर्थात ० फ हा भी वह निर्माण करता है। ' बच्चे'क दिमाग में जो योग्यता है वह हमारे दिमाग में नहीं है। शुन्य विकसित करने के लिए एक दूसरे प्रकार की मनोवृत्ति चाहिए । यह बच्चे होती लेक बुद्धि हमारी बुद्धि से भिन्न होती है। हम कह सकते हैं कि हम अपने दिमाग का उपयोग करके ज्ञान ग्रहण करते हैं। पर: बच्चे, अपने मानसिक जीवन में ज्ञान का सीधा समावेश करते हैं। केवल जिंदा दो हा वह अपनी मातृभाषा सीख लेता है। मानो उसके अंदर कोई मानसिक रासायनिक प्रक्रिया चल रही हो हे इसके विपरीत, हम विभिन्न प्रकार के अनुभवों को अपने दिमाग में एकत्रित करते जाते हैं, परंतु उन्हें आत्मसात नहीं करते। जैसे घड़ा अपने अंदर भरे हुए पानी से पृथक रहता है, उसी तरह हम भी अपने अंदर एकत्रित अनुभवों से पृथक रहते हैं। परंत बच्चे में वे अलग नहीं रहते | उसके दिमाग में अनुभव अंकित नहीं होते, वे उसका अभिन्र अंग रा दे हैं : वे उसके दिमाग का निर्माण करते हैं। बच्चा अपने चारों ओर जो भी पाता ६ दिमाग की स्वयं रचना करता है। इस प्रकार की मनोवृत्ति को हमने ग्रहणशील ससमे हमारे लिए शायद बच्चे की इस मानसिक शक्ति को समझना बहुत कठिन है, परं इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह बहुत महत्वपूर्ण है। कितना अच्छा होता कि यह हर योग्यता, जो बचपन में हमारे पास थी, बाद में भी बनी रहती । हम हंसते-खेलते पूरी जटिलताओं समेत नई भाषा सीख लेते | कितना अच्छा होता कि हम केवल जीवित रहने मात्र से ज्ञान प्राप्त कर लेते और हमें इसके लिए उतना ही प्रयत्न करना पड़ता जितना हम सांस लेने या खाना खाने के लिए करते हैं। शुरू में तो हमें कुछ पता नहीं चलेगा। फिर अचानक वह चीज जो हमने सीखी थी, हमारे दिमाग में ज्ञान के सितारे की तरह दिखाई देने लगेगी और 22043 2204६ कि ये विचार हमारे व्यक्तित्व में समा गए हैं। यदि मैं आपसे कहूं कि एक ऐसी दुनिया है जहां स्कूल या शिक्षक नहीं हैं, जहां नाम की कोई चीज नहीं है, फिर भी वहां के निवासी केवल जीवित रहने लय लि सब बातें सीख लेते हैं और वे उनके मस्तिष्क का अभिन्‍न अंग बन जाती हैं तो आप यही कहेंगे कि मैं गप लगा रही हूं। परंतु जो बात आपको गप लग रही है यहां वही वास्तविकता हे की से का हा तरीका है। वह इसी मार्ग से चलता है। बिना एहसास किए क्‍ रहा है, वह सब कुछ सीख लेता है और गर व आन मार्ग से, 1 धीरे-धीरे, अवचेतन से चेतन की ओर जा है। 2 2 2 सी हमें यह बहुत बड़ी उपलब्धि माल्रूम होती है कि मानव ने इतना ज्ञान प्राप्त किया उसे इस गा का बोध है, और उसके पास मानव मस्तिष्क है। परंतु हमें इसका मूल्य चुकाना पड़ता है क्योंकि जैसे ही हमें इसका बोध होना शुरू होता है, वैसे ही हमें नया ज्ञान प्राप्त विकास के क्रम शा करने के लिए मेहनत और प्रयास करना पड़ता है। बच्चे की एक दूसरी बड़ी उपलब्धि है अंगों का गतिशील होना। जन्म होने के बाद वह महीनों तक अपने बिछौने पर पड़ा रहता है। परंतु कुछ समय बाद उसे देखें तो वह चलने लगता है तथा अनेक काम करने लगता है। वह अपने को व्यस्त रखता है और उसी में खुश रहता है। वह आगे की नहीं सोचता, वर्तमान में रहता है। प्रतिदिन उसकी गतिशीलता बढ़ती जाती है । उसको सभी जटिलताओं सहित भाषा का ज्ञान हो जाता है। साथ ही अपनी जरूरत के अनुसार चलने-फिरने की क्षमता भी उसमें आ जाती है । लेकिन यही सब कुछ नहीं है। और भी बहुत सी बातें वह आश्चर्यजनक गति से सीखता है। उसके चारों ओर जो कुछ भी होता हैं, उसे वह ग्रहण कर लेता है। आदतें, परंपराएं, धर्म आदि उसके मस्तिष्क में जड़ जमा कर बैठ जाते हैं। बच्चे द्वारा अर्जित क्रियाओं (गतिशीलता) में भी एक व्यवस्था होती है, अर्थात प्रत्येक क्रिया, विकास की विशेष अवस्था के फलस्वरूप प्रारंभ होती हैं। इसके पहले कि वह गतिशील हो वह अपने वातावरण को आत्मसात कर लेता है। उसके अंदर एक अचेतन मनोवैज्ञानिक परिवर्तन हो चुका होता है और अपना पहला कदम उठाते समय उसे इसका बोध होने लगता है। यदि आप एक तीन वर्षीय बच्चे को ध्यान से देखें, तो आप को वह हर समय किसी न किसी चीज से खेलता हुआ दिखाई देगा। इसका यह अर्थ है कि उसने पहले जो बातें अचेतन रूप से ग्रहण की थीं, उमका अब वह स्वयं सचेत बोध करने का प्रयास कर रहा है। खेल की आड़ में वह उन वस्तुओं को हाथ में लेकर उनका परीक्षण करता है जिनको उसने अभी तक अचेतन मस्तिष्क से ग्रहण किया था। वह अब पूर्ण रूप से सचेत हो. जाता है और अपनी गतिविधियों से भविष्य के मानव का निर्माण करता है। कोई रहस्यमयी अद्भुत शक्ति उसका संचालन करती है और धीरे-धीरे उसका विकास होता है। इस तरह वह अपने हाथों से, अनुभव द्वारा, पहले खेल में और बाद में काम करके पूर्ण मनुष्य बनता है। हाथ, मनुष्य की बुद्धि के उपकरण होते हैं। इन प्रयोगों के फलस्वरूप बच्चें का अपना अलग व्यक्तित्व विकसित होता है, जो पहले की अपेक्षा सीमित होता है, क्योंकि ज्ञान का संसार सदा से अचेतन और अवचेतन संसार से अधिक सीमित होता है। वह जीवन में प्रवेश करता है और अपना अदृश्य कार्य प्रारंभ कर देता है-अर्थात धीरे-धीरे अपने देश और समय के अनुकूल अपने व्यक्तित्व को छालता है। वह क्रमशः अपने दिमाग की रचना करता है और उसके दिमाग में याददाश्त, समझने की शक्ति और सोचने की क्षमता विकसित हो जाती है। छह वर्ष का होते-होते वह इतना सब प्राप्त कर लेता है। तब अचानक हमारे शिक्षा शास्त्रियों में यह विचार उदय होता है कि इस जीव में समझ भी और हमारी बात सुनने का धीरज भी है, यद्यपि पहले वह हमारी बात नहीं समझ सकता था। पहले वह हमसे भिन्‍न संसार में रहता था। हमारी पुस्तक इस प्रथम अवस्था के बे में है। बच्चों के प्रारंभिक वर्षों के मनोविज्ञान के अध्ययन से इतनी आश्चर्यजनक बातें पता चलती हैं कि कोई भी उन्हें समझने के बाद




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