भारत की पहचान | BHARAT KI PEHCHAN

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भारत की पहचान... गाँधी जी के प्रयासों से ही हल्की पड़ी। गांधीजी ने अस्पृश्यों के लिए जो छग कर काम _ किये, वह इसलिये संभव हुए कि वे इस स्थिति में पहुँच गए थे कि कछ काम कर सकते थे। अस्पृश्यता हटने में अनेकों का हाथ रहा लेकिन गांधीजी ने इसे लेकर जो-जो काम किया, उससे अस्पृश्य समाज के रास्ते खुल गये और अपना रास्ता तय करना उनके लिये. आसान हो गया। १९२५-३५ के जमाने में तो वही हिन्दस्तान के राजा थे। अंग्रेज तो नाम के राजा थे, असली राजा तो महात्मा गांधी ही थे। उन्होंने अस्पृश्यों के पक्ष में अनेक फैसले करवाये, जो हो सकता है उनको अधिक प्रसन्द न आये हों, और वे बाद में गांधीजी से नाराज भी हुए हों, लेकिन उनके लिये जो रास्ते खुलवाने थे वे महात्मा गाँधी ने खुलवा ही दिये। उन रास्तों के खुलने के बाद फिर डॉ. अम्बेडकर जैसे लोग भी बड़ा काम कर सक॑ और अन्य लोग भी कर सके। आजकल श्री कांशीराम कर रहे हैं। और भी कर रहे है।गे। मुझे नहीं मालूम। आज बहुत से अस्पृश्य कहे जाने वाले वर्ग हैं, उनके इंटलेक्चअल सेन्टर होंगे अधिक तो कभी भी भारतीय समाज के लिए अंत्यज्य व अस्पृश्य नहीं थीं। इस बार मैंने कुछ दस्तावेज़ देखे हैं, खासतौर पर दक्षिण के दस्तावेज। मेरी अपनी समझ में भारत में व्यापक अस्पृश्यता पिछले २००-३०० वर्षों से ही रही है। मनुस्मृति इत्यादि में अवश्य कहा गया है कि जो अपने वर्ण से गिर जाता है, वह अंत में अस्पृश्य बनता है। महाभारत में अश्वत्थामा भी, पांडवों के बच्चों की हत्या के बाद, शायद ऐसे . ही अस्पृश्य माना गया। वैसे पुराणों में दिये गये भूगु-भारद्वाज संवाद इत्यादि से छगता है कि वर्णों के आपसी संबंधों के बारे में भारत में भिन्न-भिन्न विचार हमेशा ही रहे हैं। दक्षिण में १७०० से लेकर १७५० ई, के समय में अस्पृश्य करके कोई खास समृह नहीं हैं। परन्तु ये लोग अंग्रेजों द्वारा मारे जा रहे हैं, घटाये जा रहे हैं। जिन्हें आज दलित कहा जाता है वे तो उस समय सेनानी लोग हैं। गाँव की अपनी पुलिस है और ये लोग पुलिस का काम करते हैं। स्थानीय सेना में ये छोग हैं। पुलिस का काम पेरियार करते हैं, _चर्मकार करते हैं। ये अपने को बहादुर सिपाही कहते हैं। ये ग्रामों और नगरों में लोगों की जमीन के झगड़ों को निपटाने का काम भी करते हैं -- जमीन मापने, अनाज मापने इत्यादि का काम ये लोग करते हैं। १७७० ई. का एक दस्तावेज है जिसको वारेन हेस्टिंग्स ने मद्रास से कलकत्ता वापिस जामे से पहले तैयार करवाया था, उसमें ये आज दलित कहे जाने वाले १६ उनका पश्चिमीकरण भी हो रहा होगा, ईसाइकरण भी हो रहा होगा। आप लोग. भी उनके साथ मिलकर कुछ काम तो-करते होंगे। दलित शब्द ही हमें १९२० के करीब _ अग्नेज़ों से मिला है। अंग्रेजों ने जिन-जिन समूहों एवं जातियों को दलित कहा, उनमें से . . गांधी जी की अन्तर्दृष्टि लोग कह रहे हैं कि “वी ऑर ग्रेट सोल्जर्स, वी आल्सो मेक सेंडल्स'”| तो उनकी तो अपनी एक आत्मछवि, एक 'सेल्फ इमेज” है। ये 'सेल्फ इमेज' बड़ी चीज है। अब होता यह होगा कि ब्राह्मण उनके बारे में कुछ और कहता होगा, लेकिन ब्राह्मण उनके बारे में कया कहता है उससे तो काम नहीं चलता न! महत्वपूर्ण यह है कि वे अपने को क्‍या मानते हैं। ये जो आज गिरी हुई जातियाँ कही जाती हैं, उनकी उस समय 'सेल्फ इमेज” तो बहत ऊँची दिखती है। आंध्र प्रदेश में एक जिला है आदिलाबाद। वहाँ एक 'कलछा आश्रम” नाम का एक आश्रम है जिसे रविन्र शर्मा नाम के व्यक्ति चलाते हैं। उन्होंने 'फाइन आर्टस' से बी० ए० वगैरह किया है। वे वहीं के रहने वाले हैं और आदिलाबाद क्षेत्र की ५०-५२ जातियों की बात करते हैं। ५-६ वर्ष पहले वह मेरे पास आए थे। बातचीत में उन्होंने बताया कि ये जो जातियाँ हैं इनकी सबकी अपनी-अपनी कथायें हैं। इनका अपना संगीत है, संगीत के अपने इस्स्ट्रयूमेन्ट्स हैं। इन जातियों से संबंधित हजारों हजार तस्वीरें हैं, कपड़ों पर बनी हुई, जिनमें इनकी पूरी कथा कही गई है। लेकिन उन्होंने कहा कि ये भिक्षावृत्ति के लोग द इस पर मैंने पूछा कि भिक्षावृत्ति के किस प्रकार से हैं? तो उन्होंने कहा कि कहीं न कहीं से तो कुछ लेंगे न? इसलिये अपने छोगों से लेते हैं। तो जैसे अपने यहाँ पुराने समय में भाट वगैरह हुआ करते थे, ये कुछ उसी तरह के छोग हैं। उसके बाद रविन्द्र शर्मा एक जाति से संबंधित कुछ चित्र आदि लाए और मुझे दिखाया। इन तस्वीरों में तो मझे ये लोग राजाओं जैसे दिखे। ऐसा नहीं था कि कोई भिखमंगा या गिरा हुआ दिखता हो। उन्होंने इस जाति की कहानी बतायी कि ये लोग यह मानते हैं कि ये महाभारत में उल्लिखित राजा नहुष की सन्तान हैं। उनसे कभी कोई गलती हो गयी तो वे थोड़ा गिर गये। फिर जब जंगल में पांडव आये तो पांडवों ने इन लोगों से कहा कि किसी को बतलाना नहीं कि हम यहाँ आये हैं। उस समय द्रोपदी उनके साथ नहीं थीं। बाद में जब द्रोपदी आयीं तो इन लोगों ने द्रौपदी को पांडवों का पता नहीं बताया। परन्तु द्रौपदी ने पांडवों को देख लिया और इन्हें श्राप दे दिया। तो ये लोग थोड़ा दुखी हो गये। कुल मिलाकर वे सुखी और समृद्ध ही चित्रित हैं। इस तरह अस्पृश्य कही जाने वाली जातियों की भी अपने बारे में मान्यताएँ कुछ उपरोक्त प्रकार की हैं। ये मान्यताएँ सही हैं या नहीं, इतिहास में बैठती हैं या नहीं, यह अलग प्रश्न है। इन सब पर तो काम होना चाहिए। हमारे इतिहासकारों को सोचना चाहिए | अब ग्रीक मिथकों में जो कुछ मिलता है, उससे तो यह सब खराब नहीं है; सुन्दर ही है




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