हमारे ज़माने की गुलामी | SLAVERY OF OUR TIMES

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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लियो टॉलस्टॉय -Leo Tolstoy

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वैजनाथ महोदय - VAIJNATH MAHODAY

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चारिव्य में काफी तरक्को हो जाती है कदाचित्‌ यह सत्य हो । शायद यह भी सत्य हो कि इधर-उधर और कुछ स्थानों में देहात में रहने वाले भ्रम- जीवियों की अपेक्षा कल-कारखानों में काम करने थाले मजदूरों का जीवन, जहां तक बाहरी बातों का सम्बन्ध है, अधिक अच्छा दिखाई दे | पर यह 'तो कुछ ही स्थानों की बात है, सो भो उस हालत में जब कि सरकार और समाज ने, विज्ञान के आदेशों से प्रमावान्वित हो देहात की जनता के स्वच्चों की बलि चढ्ाकर भी, कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की स्थिति सुधारने के लिए वह सब कुछ कर डाला, जो कि वे कर सकते थे | यदि मिल-मजदूरों की दशा ( ऊपर-ऊपर देखते हुए ) कुछ स्थानों मे देहात की जनता से अच्छी भी दिखाई दे तो इससे क्या सिद्ध होता है यही न कि मनुष्य बाहरी दिखावे को अच्छे-से-अच्छा बनायें रखकर भी समस्त प्रकार के नियन्त्रणों(द्वारा जीवन को संकठापनन बना सकता है ? दूसरे, वह यह न सिद्ध करता है कि आखिर संसार में इतना. चुर और अस्वाभाविक जोबन ही नहीं जिसके अन्दर पश्तों त्क रहने पर भी मनुष्य अपने को उसके अनुकूल न बना सकता हो । मिल-मजदूरों ओर आम तोर से शहर के मजदूरों की दुदंशा का कारण यह नहीं कि उन्हें कम वेतन पर बहुत समय तक एकरन्सां काम करना पड़ता है | उनकी दुरवध्था का सश्चा कारण तो यह है कि प्रकृति को गोद से, स्वाभाविक जीवन से छुड़ाकंर वे शहर का नारकीय जोवन व्यतीत करने के लिए मजबर किये जाते हूँ, उनकी स्वाधीनता 'नष्ट की




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