आत्मज्ञान का मार्ग -रमण महर्षि | RAMANA MAHARISHI - ATMA GYAN KA MARG

RAMANA MAHARISHI - ATMA GYAN KA MARG by अज्ञात - Unknownपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रारम्भिक जीवन ५ “ध्यान देकर सुनो | यह एक पहाडी की तरह है । इसकी क्रिया रहस्यपूण है, जिसे मानव-मन नहीं समझ सकता । मुझे अपनी अवोध आयु मे ही यह पता चल गया था कि अश्णाचल को शोभा अद्वितीय है, परन्तु जब किसी दूसरे व्यक्ति ने मुझे बताया कि यह तिश्वश्नामज़ाई ही है तब में इसका अर्थ नही समझ सका। जब मैं यहाँ पहुँचा तव मुझे अपार शान्ति मिली और जंसे ही मैं इसके और निकट पहुँचा, मेरा मन बिलकुल स्थिर हो गया 1 यहू घटना नवम्वर, १८६५ की हैं। उस सभय श्रीमगवान की जाय यूरोपीय गणना के अनुसार सोलहू वष और हिन्दू गणना के अनुसार सत्रह वष थी । इसके शीघ्र वाद दूसरी पूव-सूचना जायी । इस बार यह एक पुस्तक के माध्यम से आयी । दिव्य-सत्ता का बाविर्भाव इस पृथ्वी पर सम्भव है, इस अनुभूति ने उसके हृदय को अवणनीय आनन्द से भर दिया। उसके चाचा कही से पेरिया पुराणम्‌ की एक प्रति माँग लाये थे । इसमे त्रेसठ तमिल शैव सनन्‍्तो को जीवन-गाथाएँ हूँ । बेंकटरमण ने जब यह पुस्तक पढ़ी तव उसका हृदय अद्भुत आश्चय से भर उठा कि इस प्रकार का विश्वास, इस प्रकार का प्रेम ओर इस प्रकार का दिव्य-उत्साह सम्भव है और मानव-जीवन में इतना सौन्दय हे, जो सभी महत्त्वाकांक्षाओं से ऊँची है और जिसकी प्राप्ति सवथा सम्भव है । इस साक्षात्वार से उसकी बात्मा आनन्दमयी कृतज्ञत्ा से पृण हो उठी । इसके वाद से श्रीमगवान्‌ चिन्तन में लीन हो गये । इस अवस्था मे भक्त




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