हिन्दी के प्रसिद्ध लेखकों की कहानियों का संग्रह | Hindi Ke Prasiddh Lekhakon ki Kahaniyon ka Sangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उसे खुश होते देर नहीं लगती थी। बिन्नी इतना बड़ा हो कर भी जब-तब उससे बच्चों की तरह लाड़ करने लगता था। कभी उसकी गोद में सिर रखकर लेट जाता और कभी उसके घुटनों से गाल सहलाने लगता। ऐसे क्षणों में उसका हृदय पिघल जाता और वह उसके बालों पर हाथ फेरती हुई उसे छाती से लगा लेती | मां, तेरा छोटा लड़का कपूत है न! '' बिननी कहता | हां-हाँ” वह हटकने के स्वर में कहती, तू कपूत है? तू मेरे चन्ना. 7? और वह उसका माथा चूम लेती | लेकिन अक्सर वह बहुत तंग पड़ जाती थी। अनेक रातें ऐसी गुजरती थीं जब वह घर आता ही नहीं था। अंधेरे घर की छत उसे दबाने को आती थी और यह सारी रातें करवटें बदलती रहती थी। ज़रा आंख झपकने पर बुरे-बुरे सपने दिखाई देने लगते थे। इसलिए कई बार वह प्रयल करके आंखें खुली रखती थी । और वह आता था तो अपने में ही उलझा हुआ व्यस्त-सा वह नहीं समझ पाती थी कि उसे किस चीज की व्यस्तता रहती है। जहां तक कमाने का सवाल था, वह महीने में कठिनता से साठ-सत्तर रूपये घर लाता था। कभी दस रूपये अधिक ले आता तो साथ ही अपनी पचास मांगें उसके सामने रख देता --इस बार मां, दो कमीज़ें सिल जाएं और एक बढ़िया-सा जूता आ जाए। ' उसकी बातों से बचन के होठों पर रूखी सी मुस्कुराहट आ जाती थी। दस ख्पये में उसे घर-भर का सामान चाहिए । और जब वह साठ से भी कम रूपये लाता, तो महिने भर की बड़ी आसान योजना उसके सामने प्रस्तुत कर देता -- 'दूध-दही का नागा, दाल, प्याज खुश्क फुलके और बस ..... !' वह जानती थी कि ये रूपये भी वह टयुशन-वुशन करके ले आता है, वरना सही अर्थ में वह बेकार है। उसके दिल में बड़े-बड़े मनसूबे अवश्य थे और उनका बखान करते समय वह छोटा-मोटा भाषण दे डालता था; परन्तु उन मनसूबों को पूरा करने के लिए जिस दुनिया की जरूरत थी, वह दुनिया अभी बननी रहती थी और वह जोश से उंगलियां नचा-नचा कर कहा करता था कि मां, वह दुनिया बन जायेगी तो तुझे पता चलेगा कि तेरा नालायक बेटा कितना लायक है! 'चुप रह खतम रखना!' वह प्रशंसा की दृष्टि से उसे देखती हुई कहती, 'बडा लायक एक तू ही है।' 'मां, मेरी लियाकत मेरे पेट में बन्द हैं ।' वह हंसता। 'जिस तरह हिरन के पेट में कस्तूरी बन्द होती है न, उसी तरह | जिस दिन वह खुल कर सामने आएगी उस दिन तू अचम्भे से देखती रह जायेगी ।' उसे उसकी बातें सुनकर गर्व होता था। पर कई बार वह बहुत गुम-सुम और बन्द-बन्द सा रहता था, तो उसे उलझन होने लगती थी। और उसके साथ उसके अजीब-अजीब दोस्त घर आया करते थे। उन लोगों का शायद कोई ठोर-ठिकाना नहीं था, क्योंकि वे आते तो दो-दो दिन वहीं पड़े रहते थे और खाने-पीने में निहायत बेतकल्लुफी से काम लेते थे। चूल्हे से उतरती हुई रोटी के लिए जब वे आपस में छीना-झपटी करने लगते, तो उसे आन्तरिक प्रसन्‍नता का अनुभव होता था। परन्तु प्राय/ उसकी दाल की पतीली खाली हो जाती थी और यह देखकर कि उन लोगों की खाने की कामना अभी बनी हुई है, उसे घर का अभाव अपना अपराध प्रतीत होता था। ऐसे समय उसकी आंखों में नगी छा जाती और वह ध्यान बंटाने के लिए अन्य काम करने लगती। वे लोग रूखी नमकीन रोटियों की फरमाइश करते तो वह चुपचाप बना देती, परन्तु उन्हें खिलाने का उसका सारा उत्साह समाप्त हो चुका होता | और उन लोगों के बहस-मुबाहिसे कभी शान्त नहीं होते थे। वे सब जोर-जोर से बोलते थे और इस तरह आपस में उलझ जाते थे; जैसे उनकी बहस पर धरती और ईश्वर की सत्ता का दारोमदार हो। कई बार वे इतने गरम हो जाते थे कि लगता था, अभी एक-दूसरे को नोंच डालेंगे; मगर सहसा उस उत्तेजना के बीच से एक कहकहा फूट पड़ता और वे उठ- उठ कर एक-दूसरे से बगलगीर होने लगते। बिन्नी बचपनमें बहुत खामोश लड़का था। अब उसे इस तरह हुड़दंग करते देखकर उसे आश्चर्य होता था। कई-कई घण्टे घर में तूफान मचा रहता था। उसके बाद फिर नीरवता छा जाती, जो बहुत ही अस्वाभाविक और दम घोटने-वाली प्रतीत होती थी। जब बिन्नी दो-दो दिन घर नहीं आता, तो उस नीरवता के ओर-छोर गुम हो जाते और वह अपने को सदा से गहरे शून्य एकान्त में पड़ी हुई महसूस करती |




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