दो साहसिक कहानियाँ | DO SAHASIK KAHANIYAN

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होल्गेर पुक्क - HOLGER PUCK

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एक लम्बा-सा आदमी उनके सामने खड़ा था। उसने काली बरसाती पहन रखी थी और अपने हाथ में उसने चाभियों का गुच्छा पकड़ा हुआ था। वह कामताप्रसाद नहीं था। वह बिल्कुल अजनबी था। “नमस्ते!” मीना ने कहा। “मैंने कहा नहीं था कि यहाँ मत आओ?” अरुण बुदबुदाया। लेकिन अभय ने दृढ़ स्वर में पूछा, “क्या कामताप्रसाद जी अन्दर हैं?” “नहीं, यहाँ कोई नहीं है...” अजनबी धीरे से बोला। “मैंने तुमसे कहा नहीं था...” अरुण बोला, और चलने के लिए तैयार हो गया। “जब तक बारिश बन्द नहीं हो जाती तब तक के लिए क्‍या हम यहाँ ठहर सकते हैं?” मीना ने मीठी आवाज में पूछा। “ठीक है,... बरामदे में रुक जाओ,” उस आदमी ने ऐसी मुद्रा बनायी मानो वह उनसे पूरी तरह छुटकारा पाना चाहता हो। अरुण फौरन आज्ञाकारी ढंग से बाहर खिसक आया। अभय भी दुबकते हुए दरवाजे की ओर बढ़ा। लेकिन मीना पूछ बैठी, “क्या आप कामताप्रसाद जी का इंतजार कर रहे हैं?” जवाब देने में देर लगी, जैसे कि उस व्यक्ति को शब्द न मिल रहे हों। “हाँ, एक तरीके से, मैं, उनकी कार की मरम्मत कर रहा हूँ,” वह आदमी खत्ती में खुलने वाले दरवाजे की ओर मुड़ा, जहाँ कामताप्रसाद चाचा अपनी हल्के भूरे रंग की फियेट रखते थे। अभय ने अपने कान खड़े कर लिए। गाड़ी की मरम्मत करना तो बिल्कुल उसके जंगल के बीच वह बंगला कप




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