शिक्षा में विवेक | SHIKSHA MEIN VIVEK

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के० जी० मशरूवाला - K. G. MASHRUWALA

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२८ शिक्षा्मं विवेक अेक व्यक्तिके रूपमें अच्छी तरह जीना सीखें। असमें स्वावलंबन और आत्म-विश्वास पैदा हो। वह नेता न बने, लेकिन स्वाभिमानी तो बने ही; वह अमीर न बने, लेकिन स्वाश्रयी बननेकी हिम्मत तो रखे ही। बह राममूर्ति न बने, लेकिन हाथ-पैरसे अपंग तो हरगिज न रहे। सबके लिओे असी योजना बनानेके बाद तथा छरूगभग सोलह वषेकी अम्रमें हरअके स्वाश्रयी बन सके आअितनी योग्यता असमें पैदा कर देनेके बाद जिसे शोक हो, सुविधा हो, बुद्धि हो, अुसके लिओ आगे बढ़नेकी व्यवस्था करे। असे अपने पसन्द किये हुओ अद्योग, औद्योगिक विज्ञान या बौद्धिक विषयकी शिक्षा दे। तब यह प्रश्न ही न रहेगा कि अन संस्थाओंका छाभ लेनेके लिओि जी प्रारंभिक ज्ञान आवश्यक है, अुसके लिओे आवश्यक तैयारी तथा बादमं अुसका संपूर्ण शिक्षण असे कितने समयमें पूरा कर लेना चाहिये। विद्यार्थी तीस वर्ष तक निष्णात बने तो भी कोओ हर्ज नहीं। असे यदि बीचमें कहीं रुकना हो तो रुक भी सकता है, क्योंकि वह अपने पिछले शिक्षाकालमें स्वाश्रयी तो बन ही गया है। बुनियादी तालीम” या “वर्धा-योजना ' के नामसे जो शिक्षा प्रध्यात हुओ हैं अुसका यही ध्येय है। बुनियादी तालीम ” की योजनामें असके मुद्दे जितने स्पष्ट रूपमें पेश किये गये है, अतने स्पष्ट रूपमें जब हम साबरमतीकी राष्ट्रीय शाला चलाते थे अस समय हमें शायद वे गः भी दिखाओ दिये हों, फिर भी बीजरूपमें तो हमारे मनोरथ असे ही थे। असमें बम्बन युनिवर्सिटी जैसी संस्थाकी शिक्षाका निषेध नहीं है, वह सिफ असका मूल्य मर्यादित करती है। यूनिवर्सिटी शिक्षाका अपयोग अल्पसंख्याके लिओ है, बहुजन-समाजके लिओ नहीं। परंतु असे जिस ढंगसे प्रतिष्ठा मिल्ली है, अुसके कारण जिनके लिओ वह योग्य नहीं होती ओन्हें भी प्राप्त करने योग्य वस्तु मालम होती है; और जअिसलिओ विद्या्थियोंके बहुत बड़े हिस्सेकी शवित, समय और पैसेका अपव्यय होता है। अंसी संस्थाओंमें जितनी जगह होती है, अुससे सौ गुने अधिक अम्मीदवार होते हैं और असंतोष बढ़ता है। फिर भी विद्यार्थियोंको बहुतसा जानने लायक भी सामान्य ज्ञान नहीं मिलता। जो मिलता है असमें से बहुतसा तो कभी भी अनके अपयोगमें नहीं आता, और कितना ही ज्ञान वे अच्च शिक्षा २५ परीक्षाके दूसरे दिन ही भूछ जाते हैं। ज्यादातर विद्यार्थी तो परीक्षाके वाद अध्ययनको सदाके लिओ तिलांजलि दे देते हैं; आनमें यावज्जीवन विद्यार्थी रहनेकी अमंग ही नहीं रहती । जिस अंग्रेजी ज्ञानके लिओ बेहिसाब समय लगाया जाता है, वह भी कामचलाओ्‌ ही रहता हैं; और जिन्होंने स्वभाषाको खास विषयके रूपसें लिया हो अन्हें छोड़कर शेषकों अुसका ज्ञान भी नहीं-जैसा ही मिलता है। फिर भी, युनिवर्सिटी शिक्षाका अुसके मर्यादित क्षेत्रमें अपयोग है। अिसलिओ अस संबंधर्में विवादास्पद प्रश्नों पर दो-चार विचार यहां पेश करता हूं। आधुनिक शिक्षाशास्त्री अच्च शिक्षाके बारेमें तीन भिन्न भिन्न आदशोकी कल्पना करते पाये जाते हैं। ओेकका आदर्श है ' ऑक्सफर्ड- कैम्ब्रिज ” जैसे या नालंदा-तक्षशिला ' जैसे छात्राय-विद्यापीठोंका । ऑवक्स- फर्ड-कैम्त्रिज तथा नालंदा-तक्षशिलाके आदर्शोमें प्राचीतता और अरवचीनदाका द भेद अवश्य होगा, परंतु दोनोंका स्वरूप छात्रालय-विद्यापीठका है। जिस आदर्शमें माननेवालोंका आग्रह है कि अब जो भी नओ युनिवर्सिटी स्थापित की जाय, वह छात्रालय-विद्यापीठ ही होनी चाहिये। आगे मैं जैसी यूनि- वर्सिटीके लिओ “विश्वविद्यालय ' शब्दका प्रयोग करूंगा। दूसरा आदर प्रान्तव्यापी संस्थाओंको मान्यता देकर तथा परीक्षायें लेकर प्रमाणपत्र देनेवाले भारतकी आधुनिक युनिवर्सिटियों जैसे मण्डलका है। असमें छात्रालयको महत्त्व नहीं दिया जाता, न वह किसी ओक स्थानके लिओ होता है। वह व्यापक विद्यापीठ है। अुसके लिओ आगे मैंने “ ज्ञानपीठ “ शब्द सुझाया है। तीसरा आदर्श गुरुकुल विद्यापीठका है। यह नालंदा-तक्षशिलासे कुछ अलग ही' कल्पना है । सांदीपनिके पास रहकर शिक्षा पानेवाले क्रृष्ण-बलदेवके जीवनका जो वर्णन मिलता है, अभिज्ञान शार्कुतल में कण्वके आश्रम परसे जो कल्पना होती है, छांदोग्योपनिषद्म अद्यलक आदिके गरुगहोंकी जो कल्पना होती है, यह आदशे असीके आधार पर रचा हुआ है। जिसके विश्ञाल स्वरूपमें रवीन्द्रनाथ टागोर जैसे किसी प्रतापी कुलपतिके पास, जिसके आसपास अनेक विद्वानोंका मण्डल होगा, विद्यार्थी बचपनसे




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