इज्ज़त के नाम | IZZAT KE NAAM

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मुख़्तार माई - MUKHTAR MAI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इज्जत के नाम चूँकि मामले की ख़बरें पहले ही अख़बारों में छप चुकी हैं, मुझे ख़याल आता है कि अफ़सरों को दूसरे अख़बार वालों के आने का डर है, जो इस ख़बर को और भी दूर-दूर तक फैला देंगे। हालाँकि, मुझे सचमुच किसी चीज़ के बारे में पक्का यकीन नहीं है। जिस्म की एक-एक हरकत मेरे लिए एक कोशिश है, और अपने ऊपर दूसरों की नाज़रें महसूस करना निरी बेइज़्ज़ती। ऐसे सख़्त तजुरबे के बाद कोई खा, पी और सो कैसे सकता है? मगर इसके बावजूद, मैं उठ कर बाहर आती हूँ और पुलिस की गाड़ी में सवार हो जाती हूँ, जहाँ मैं अपनी चद्दर में अपना मुँह छिपा लेती हूँ, और सड़क को गुज़रते हुए भी नहीं देखती। मैं एक अलग ही औरत बन गयी हूँ। | मैं ख़ुद को फ़र्श पर बैठा पाती हूँ, अजनबियों के साथ, एक ऐसे कमरे में जो सामान से बिलकुल ख़ाली है। मुझे कुछ पता नहीं कि मैं यहाँ क्या कर रही हूँ, या आगे क्या होने वाला है। कोई मुझे पूछ-ताछ करने की ख़ातिर कहीं ले जाने नहीं आता। और चूँकि मुझसे कोई बात नहीं करता, न मुझे कुछ समझाता है, मेरे पास इस बारे में सोचने का बहुत वक्‍त है कि औरतों के साथ कैसा सलूक किया जाता .है। ये मर्द ही हैं जो “जानते” हैं; औरतों को बस ख़ामोश रहना और इन्तज़ार करना चाहिए। हमें कुछ भी जानने की क्या ज़रूरत है? मर्द तय करते हैं, हुकूमत करते हैं, कदम उठाते हैं, सही-ग़लत के फ़ैसले करते हैं। मैं उन बकरियों के बारे में सोचती हूँ, जिन्हें खेतों में घूमने-फिरने से रोकने लिए आँगन में बाँध दिया जाता है। यहाँ मेरी हैसियत भी एक बकरी से ज़्यादा की नहीं, भले ही मेरी गर्दन में रस्सी न बँधी हो। * वक्‍त बीतता है। जब शकूर और मेरे अब्बा यह देखने के लिए आते हैं कि क्‍या हो रहा है तो पुलिस उन्हें भी मेरे साथ उसी कमरे में बन्द कर देती है, जहाँ हम सारा दिन बोलने की हिम्मत किये कौर बैठे रहते हैं। सूरज डूबने के वक्‍त पुलिस हमें गाड़ी में बैठा कर वापस गाँव ले आती है। कोई पूछ-ताछ नहीं; कोई “रस्म अदायगी” नहीं। हमेशा की तरह मुझे एहसास होता है कि मुझे धकेल कर किसी चीज़ से किनारे कर दिया गया है, लेकिन मुझे नहीं पता किस चीज़ से। जब मैं बच्ची थी, और फिर एक जवान औरत बनी, तो मैं बस इतना कर सकती थी कि गौर से बड़ों की बातें सुनूँ ताकि समझ सके वो किस चीज़ के बारे में बातें कर रहे हैं। मैं न तो सवाल पूछ सकती थी, न अपनी तरफ़ से बोल सकती थी - मैं सिर्फ़ दूसरे लोगों के शब्दों को टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ कर यह समझने का इन्तज़ार कर सकती थी कि मेरे इर्द-गिर्द क्या हो रहा है। अगले दिन सुबह के पाँच बजे पुलिस लौटती है और मुझे उसी जगह पर उसी कमरे में ले जाती है, जहाँ मैं सारा दिन गुज़ारती हूँ - सूरज ढलने पर फिर गाड़ी में बिठा 28 एक बेहद अनोखा जज कर घर ले जाये जाने के लिए। तीसरे दिन फिर यही चीज़ होती है। वही कमरा, वही लम्बा दिन कुछ भी न करते हुए। मुझे पक्का यकीन तो नहीं है कि यह कैद इलाके में अख़बार वालों की मौजूदगी की वजह से है, लेकिन यह शक आगे चल कर आख़िरकार सच्चा साबित होने वाला है। मुझे अगर पता होता तो मैंने घर के बाहर आने से इनकार कर दिया होता। तीसरे और आखिरी दिन मेरे अब्बा, शकूर और मुल्ला को. उसी थाने में लाया जाता है। मैं उन्हें देख नहीं पाती, क्योंकि हम अलग-अलग कमरों में हैं। बाद में मुझे पता चलेगा कि एक सज़ायाफ़्ता लोगों के लिए है और दूसरा मुजरिमों के लिए : मैं सज़ायाफ़्ता लोगों वाले कमरे में रखी गयी थी, मुल्ला और मेरे घरवाले दूसरे कमरे में। बाद में वो मुझे बतायेंगे कि मुझसे पहले उन तीनों से इस बारे में पूछा गया था कि क्‍या हुआ था। आख़िरकार जब मुझे पूछ-ताछ के लिए ले जाया जाता है तो मुल्ला से मेरी मुलाकात होती है, जिसे बस इतना वक्‍त मिलता है कि मुझे ख़बरदार कर सके। “होशियार रहना! जो भी तुम उन्हें बताती हो वो अपने लफ़्ज़ों में लिखते हैं।' अब मेरी बारी है, और जैसे ही मैं तहसील के बड़े पुलिस अफ़सर के दफ्तर में दाख़िल होती हूँ, मेरी समझ में आ जाता है। “देख मुख्तार, हम मस्तोइयों को बड़ी अच्छी तरह जानते हैं। वो बुरे आदमी नहीं हैं, लेकिन तू उनके ख़िलाफ़ इल्ज़ाम लगा रही है! ऐसा क्‍यों कर रही है तू? इसका कोई मतलब नहीं है।” द “मगर उन्होंने मेरे बाज़ू पकड़ लिये थे, और मैं मदद के लिए चिल्लायी थी, मैंने रहम की भीख माँगी थी द “बेवकूफ़ लड़की, तुझे कभी यह दावा नहीं करना चाहिए । जो कुछ तूने अब तक कहा है, वो मैं लिख लूँगा, और तुझे पहली रिपोर्ट पढ़ कर सुना दूँगा। लेकिन कल मैं तुझे अदालत ले जाने वाला हूँ, और जज के सामने तुझे ख़बरदार रहना होगा, बहुत ख़बरदार : तू ठीक-ठीक वही कहेगी जो मैं तुझे अब बता रहा हूँ। मैंने हर चीज़ तैयार कर ली है, और मुझे पता है यह तेरी बेहतरी के लिए है, और तेरे घरवालों की बेहतरी के लिए, और इससे ताल्‍लुक रखने वाले बाको सब के लिए।” उन्होंने मेरी इज़्ज़त लूट ली।” “तुझे यह नहीं कहना चाहिए कि तेरी इज़्ज़त लूटी गयी है।” उसकी मेज़ पर एक काग़ज़ रखा है, जिस पर उसने पहले से कुछ लिख रखा है। मुझे कैसे पता चले वहाँ क्या लिखा है? काश, मैं पढ़ना जानती! उसने मुझे काग़ज़ पर नज़र डालते देख लिया है, लेकिन उसे कोई परवाह नहीं। “तुझे अब्दुल ख़ालिक का नाम नहीं लेना है। तुझे यह नहीं कहना है कि तेरी इज़्ज़त लूटी गयी है। तुझे यह नहीं कहना है कि वही था जिसने कुछ किया था। 29




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