दलित साहित्य के मसीहा | DALIT SAHITYA KE MASEEHA

DALIT SAHITYA KE MASEEHA by ओमप्रकाश वाल्मीकि - OMPRAKASH VALMIKIपुस्तक समूह - Pustak Samuh

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ओमप्रकाश वाल्मीकि - Omprakash Valmiki

जन्म: 30 जून, 1950, बरला, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश

शिक्षा: एम.ए. (हिन्दी साहित्य)

प्रकाशित कृतियाँ: सदियों का संताप, बस्स! बहुत हो चुका, अब और नहीं (कविता संग्रह); जूठन (आत्मकथा) अंग्रेजी, जर्मन, स्वीडिश, पंजाबी, तमिल, मलयालम, कन्नड़, तेलगू में अनूदित एवं प्रकाशित। सलाम, घुसपैठिए (कहानी संग्रह), दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, मुख्यधारा और दलित साहित्य, सफाई देवता (सामाजिक अध्ययन), दलित साहित्य: अनुभव, संघर्ष और यथार्थ, ।उउं ंदक वजीमत ैजवतपमे, चयनित कविताएँ। अनुवाद: सायरन का शहर (अरुण काले) कविता संग्रह का मराठी से हिन्दी में अनुवाद, मैं हिन्दू क्यों नहीं (कांचा एलैया) की अंग्रेजी पुस्तक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8/26/2016 विचार से दलित साहित्य की अंतःचेतना को पुनः देख लें। डा. अंबेडकर की वैचारिकता में कहीं भी स्त्री विरोध नहीं है। और दलित साहित्य अंबेडकर विचार से ऊर्जा ग्रहण करता है। जिसे सभी दलित रचनाकारों ने, चाहे वे मराठी के हों या गुजराती, कननड़, तेलुगु या अन्य किसी भाषा के। यदि कोई जन्मना दल्नित स्त्री विरोधी है और जाति- व्यवस्था में भी विश्वास रखता है, तो आप उसे दलित लेखक किस आधार पर कह रहे हैं? यह दलित साहित्य की समस्या नहीं है, यह तो उस मानसिकता की समस्या है जो आप जैसे आचार्य विकसित कर रहे हैं। समाज में स्थापित भेदभाव की जड़ें गहरी करने में साहित्य का बहुत बड़ा योगदान रहा है। जिसे अनदेखा करते रहने की हिंदी आलोचकों की विवशता है। और उसे महिमा मंडित करते जाने को अभिशप्त हैं। ऐसी स्थितियों में दलित आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर प्रश्न चिहन लगाने की एक सोची समझी चाल है। बल्कि यह साहित्यिक आलोचना में स्थापित पुरोहितवाद है जो साहित्य में कुंडली मारकर बैठा है। हिंदी साहित्य को यदि लोकतांत्रिक छवि निर्मित करनी है तो इस पुरोहितवाद और गुरुडम से बाहर निकलना ही होगा। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो उस पर यह आरोप तो लगते ही रहेंगे कि हिंदी साहित्य आज भी ब्राहमणवादी मानसिकता से भरा हुआ है। अपने सामंती स्वरूप को स्थापित करते रहने का मोह पाले हुए है। शीर्ष पर जाएँ




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