आडू का पेड़ | AADOO KA PED

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रमेश चन्द शाह - RAMESH CHAND SHAH

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8/2/2016 पेड़ है जो हमारे ननिहाल में लगा हुआ है।' बाबूजी मुस्कराकर रह गए। मेरे रहस्य में उनका बिल्कुल भी साझा नहीं है, यह मुझे तत्काल लगा और मुझे इस पर खासी हैरानी भी हुई | इसलिए कि हमारे अपने घर में तो कोई पेड़- पौधे नहीं थे - मगर पिता को अपने काम के सिलसिले में हर हफ्ते बस्ती के बाहर जंगलों में जाना पड़ता और कभी-कभार वे मुझे भी साथ ले जाते। मैं देखता कि जंगल आते ही पिताजी एकदम मस्त-से हो जाते। पेड़ों के बारे में वे मुझसे इस तरह बातचीत करते जैसे मुझे भी उन्हीं के बराबर जानकारी हो। और जैसे पेड़ों के बारे में बात करना बेहद जरूरी हो। मेरी समझ में नहीं आता था कि जब उन्हें पेड़ों से इतना लगाव है तो उन्होंने पेड़ों के बीच ही घर क्यों नहीं बनाया। वह तो दूर रहा, घर में भी एक पेड़ नहीं लगाया। यह बात तब कैसे सूझती कि जिस घर में आदमियों तक के रहने को जगह काफी नहीं, वहाँ पेड़ कैसे उग सकते हैं ! पतझड़ का मौसम मुझे सबसे उदास मौसम लगता। दीवाली के कुछ ही दिन बाद मैं देखता, मेरे दोस्त को कुछ हो रहा है। वह अपने में ही ड्बा दीखता और मुझसे बोलना बंद कर देता। हवा के हर झोंके को वह अपने कुछ पत्ते दे देता। मुझे हवा पर गुस्सा आता जो उसे नंगा ही कर देने पर उतारू जान पड़ती थी। धीरे-धीरे मैंने इसकी व्याख्या भी ढूँढ़ ही निकाली। पेड़ तपस्या करने जा रहा है। तपस्या से उसका कायाकल्प होगा। कल्पवृक्ष यदि अपना ही कायाकल्प नहीं करेगा, तो औरों को क्या देगा? और जब उसे नया चोला धारण करना ही है तो पुराना छूटेगा कि नहीं? इसलिए यह पतझड़... पूरे एक महीने वह पत्ते गिराता रहता। मुझे उसका वह दिगंबर रूप पता नहीं क्यों, याद नहीं आता। मेरी आँखों में उसकी दो ही मुद्राएँ प्रकट हो पाती है। मुद्राएँ क्या, घटनाएँ! पहली घटना तब घटती थी जब अचानक एक सुबह नींद से निकलकर मैं आँगन में खड़ा होता और वह मुझे सर्वाँग फूल्रों से - गुलाबी फूलों से लदा - दीखता। हर शाख फूलों से लदी - जैसे फूलों से ही बनी हो। डालियाँ तो कहीं दिखती ही नहीं - हवा में, हवा से ही बने, हवा में टिके फूल। बसंत को मैंने इसी तरह पहचाना कि बसंत जब आता है तो सबसे पहले आड़ के पेड़ पर आता है। उसे फूलों से लादकर ही तब इधर-उधर निगाह डालता है। मुझे याद है, महाशिवरात्रि के आसपास ही कहीं वह चमत्कार होता था। फिर धीरे-धीरे उस गुलाबी रंग के बीच हरा रंग भी झलकने लगता और एक दिन - होली के आसपास ही आता था वह दिन - एकाएक पूरा पेड़ हरा हो जाता। चमकीली असंख्य पत्तियाँ असंख्य हरी चिड़ियों-सी जाने कहाँ-कहाँ से आकर उस पर बैठ जातीं और तब अचानक वह पेड़ एक भरा-पूरा पक्षी-विहार बन जाता। उसकी तीन-चार महीने की दिगंबर तपस्या का ऐसा वरदान! मुझे तपस्या और उससे निकलनेवाली सिद्धियों से जुड़ी पौराणिक कहानियाँ बिल्कुल सच्ची लगने लगतीं। सचमुच पौराणिक ही तो प्रतीत होता था वह मेरा दोस्त मुझे! पौराणिक और प्रत्यक्ष एक साथ! धीरे-धीरे पत्तियों के बीच छोटे-छोटे फल भी झाँकने लगते। वे बहुत दिन लेते पकने में। उन्हें कोई पकने दे, तब न? आड़ू के उन पक्के और कच्चे और अधपके फलों का स्वाद मैं अभी नहीं भूला - यही गनीमत है। भूल्र जाता तो बहुत बुरा त्रगता। वैसे वह पूरी तरह पका हुआ भी अपना हरापन नहीं छोड़ता। यह बात मुझे बहुत अच्छी लगती थी। यहाँ जो आड़ बिकने आते हैं, वे मुझे कतई अच्छे नहीं लगते। वे रंग बदलनेवाले आड़ हैं और जरूरत से ज्यादा पके हुए। आड़ू फलों में सबसे नाजुक फल है। बहुत जल्दी सड़ जाता है। आड़ फल्नों में सबसे प्रिय फल था और आज भी है। यह बात दूसरी है कि अब वह मेरे लिए दुर्लभ है। आड़ के पेड़ का स्मरण-आवाहन भी मेरे लिए उसकी सफलता का नहीं, उसकी सपुष्पता-सपत्रता का ही अनुभव बना हुआ है। 4/6




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