समाजवाद से सर्वोदय की ओर | SAMAJVAD SE SARVODAYA KEE ORE

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जयप्रकाश नारायण - Jai Prakash Narayan

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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16|.._._......_______7_7_7_7॒ समाजवादसे सर्वोदय की ओर 6 समाजवादु से सर्वोद्य की ओर मैंने दल और सत्ता की राजनीति से अलग होने का निश्चय इसलिए नहीं किया कि मैं उससे ऊब गया या निराश को गया था, बल्कि इसलिए किया कि मुझे यह स्पष्ट को गया था कि राजनीति से काम नहीं बनेगा। उद्देश्य तो वही पुराना समता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व और शान्ति की स्थापना है। किन्तु क्या राजनीति का कोई विकल्प है? क्या राज्य के माध्यम को छोड़कर समाज को बदलने और उसके पुननिर्माण का और भी कोई रास्ता हो सकता है? राजनीति केवल राज्य या सत्ता का विज्ञान है। एक विकल्प था। उसे महात्मा गांधी ने हमारे सामने रखा था। किन्तु मुझे स्वीकार करना चाहिए, यह मुझे स्पष्ट नहीं हुआ था। स्वतंत्रता की हमारी लड़ाई के समय गांधीजी ने सशख्र संघर्ष का एक विकल्प दिखाया था और हमने उनका अनुकरण किया। अनुकरण इसलिए नहीं किया कि हमें उस पर पक्का विश्वास हो गया था, बल्कि इसलिए कि उनका नुसखा कारगर साबित हुआ था। कहावत है, सफलता की तरह कोई सफल नहीं होता! गांधीजी के आन्दोलन लोगों को जाग्रत्‌ करने और आन्दोलन में कूद पड़ने की प्रेरणा देने में, जैसा पहले कोई भी आन्दोलन नहीं कर पाया था, सर्वोच्च सफलता प्राप्त कर रहे थे। सारे प्रतिस्पर्धी कार्यक्रमों और विचारधाराओं को हार मानकर पीछे हटना पड़ा था। जांधीजी का लोक-सेवक-संघ किन्तु गांधीजी को अवसर ही नहीं मिला कि वे समाज को बदलने और उसके पुननिर्माण की अपनी अहिंसक पद्धति का दर्शन करा सकते। इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने इस सम्बन्ध में काफी कहा और लिखा है। किन्तु इसके पूर्व कि वे इस पर अमल करते, बड़ी क्रूरता के साथ उन्हें हमारे बीच से छीन लिया गया। पीछे की और देखते हैं, तो अब इसमें सन्देह नहीं मालूम होता कि उन्होंने अपने भावी कार्यक्रमों की बुनियाद डालना उसी समय शुरू कर दिया था। किन्तु वे जो कुछ कर रहे थे, उसका आशय जैसा और भी बहुत-से लोगों की समझ में उस समय नहीं आया था, मैं भी समझ नहीं पाया। उदाहरण के लिए उन्होंने स्वतंत्रता के संग्राम में इतनी अद्भूत सफलता प्राप्त की, किन्तु अपने आदर्श के अनुरूप देश के पुननिर्माण में उपयोग करने के लिए सत्ता अपने हाथ में नहीं ली, इस घटना का अभिप्राय समझने में भी मैं बिल्कुल चूक गया। उसी प्रकार जब उन्होंने यह प्रस्ताव किया कि कांग्रेस को राजनीतिक क्षेत्र से हट जाना चाहिए और अपने को जिसे उन्होंने 'लोक- सेवक-संघ' कहा था, उसमें समेट लेना चाहिए। इस अद्वितीय प्रस्ताव के तात्पर्यार्थ से फिर मैं वंचित रह गया। देश को ही उस प्रस्ताव पर शान्तिपूर्वक विचार करने का अवसर नहीं मिला। सारा देश दु:ख और क्षोभ में ऐसा डूबा हुआ था कि मुक्त- चिन्तन सम्भव नहीं था। इसके अतिरिक्त सबकी आँखें उनकी और लगी थीं; जिनसे नैया के इस खेवैया की अनुपस्थिति में उसे सुरक्षित स्थान तक ले चलने की आशा थी और उनकी और से राष्ट्रपिता की अन्तिम इच्छा और वसीयत' क्या थी, इसके सम्बन्ध में एक शब्द भी नहीं सुनाई पड़ा। इसके भी आगे जब यह देखा गया कि गांधीजी के प्रत्येक राजनैतिक सहयोगी ने राजनीति का परम्परागत मार्ग अपना लिया है, इस बात का सन्देह तक नहीं हो सका कि गांधी-विचार में दल और सत्ता की पद्धति का कोई विकल्‍प भी है। गांधीजी और दलजत राजनीति यहाँ यह एक प्रश्न भी उठाया जा सकता है कि गांधीजी के सम्बन्ध में, जिन्होंने अपना सारा जीवन राजनीति में बिताया, यह शंका ही क्यों की जाती है कि उन्हें इसके विकल्प की भाषा में सोचना चाहिए था। मेरी विनग्र राय में गांधीजी की राजनीति के जिस अर्थ का यहाँ मैं विचार कर रहा हूँ, उस अर्थ से कभी कोई वास्ता नहीं रहा। गांधीजी ने स्वतंत्रता का जो आन्दोलन चलाया, वह इसी अर्थ में राजनीतिक था कि उसका लक्ष्य भारत की राष्ट्रीय स्वाधीनता था; किन्तु वह किसी दल के लिए सत्ता का आन्दोलन हो, इस अर्थ में राजनीति” नहीं था। यदि उसका लक्ष्य सत्ता था, तो वह सत्ता पूरे भारतवर्ष की जनता के लिए थी। इसमें वे लोग भी सम्मिलित थे, जो पाकिस्तान बनाने के लिए अलग हुए और दोनों हिन्दुस्तानों में जितने दल मौजूद थे, वे और भविष्य में जो बनेंगे, वे भी सम्मिलित थे। गांधीजी किसी दल के नेता नहीं थे, जो अपने दल की सत्ता के लिए लड़ते और दाँव-पेंच खेलते। यदि ऐसा होता, तो उनके मन, में कांग्रेस को सत्तावादी राजनीति छोड़ने




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