अंग्रेजो से पहले का भारत | ANGREZON SE PEHLE KA BHARAT
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
32
श्रेणी :
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand). समय के समाज में प्रत्येक व्यक्ति को एक सामान्य गरिमा हासिल थी और
उसकी सामाजिक और आर्थिक जरूरतों का उचित तरीके से ख्याल रखा
जाता था| भारत के सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप हर व्यक्ति को भोजन
और आश्रय का सहज अधिकार प्राप्त था और भारत की उपजाऊ भूमि के
कारण उनके इस अधिकार की सहज गारंटी भी रहती थी | मध्यकालीन
भारत के एक इतिहासकार के अनुसार दिल्ली के एक शासक के खर्च के
ब्यौरों में सिर्फ एक मद की जानकारी मिलती है कि वे लोगों को मुफ्त
भोजन की व्यवस्था करने पर कुल कितना खर्च करते थे | हो सकता है कि
उस समय राज्य के खर्च की सबसे बड़ी मद यही रही हो और यह रिवाज
उसने भारतीय समाज की पुरानी परंपरा को देखते हुए चलाया हो।.
.... इन ऑकड़ों से यह पता चलता है कि राजस्व में सिर्फ गॉव के
भीतर की संस्थाओं के खर्च को पूरा करने की ही व्यवस्था नहीं थी | गाँवों
की अंतर्वर्ती धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, हिसाब-किताब रखने वाली
और सैनिक संस्थाओं के खर्च की भी व्यवस्था थी | इस तरह यह स्पष्ट हो
जाता है कि गाँव या इसी तरह जनपद और शहर--कस्बे भी अपनी आंतरिक
व्यवस्था खुद संभालते थे और उसके खर्च की व्यवस्था करने के कारण.
. ग्राम स्वराज्य जैसी व्यवस्था कहे जा सकते हैं मगर वे किसी माने में भी कटे
हुए और अलग--अंलग नहीं थे | इसके बजाय स्थानीय ढाँचा, उससे ऊपर
केक्षेत्रीय या जनपदीय ढाँचे और वह अपने और ऊपर के ढाँचे की जरूरतों
को पूरी करने वाले थे और इस तरह काफी बड़े इलाके की आंतरिक एकता
का निर्वाह हुआ करता था | एक तरह से यह वही ढाँचा था जिसकी तरफ
गॉधीजी ने सामुद्रिक लहरों के वृत्तों के रूपक के जरिए इशारा किया था
जिसका सबसे अंतर्वर्ती वृत्त अपनी स्वायत्तता बनाए रखते हुए भी ऐसे सब
कामों के लिए, जिन्हें वह खुद नहीं निभा सकता, अपने से ऊपर वाले वृत्तों
कोकंधादियेरहता है।...... द
...... इस तरह देखा जा सकता है कि उपज का काफी बड़ा हिस्सा
समाज के ताने-बाने और छोटी-बड़ी संस्थाओं का खर्च निबाहने के लिए
छोड़ दिया जाता था, जबकि शिखर के ढाँचे के लिए, चाहे वह क्षेत्रीय स्तर
पर हो या केंद्रीय स्तर पर, काफी थोड़ा भाग छोड़ा जाता था | शुरू के
र्८
अंग्रेज अधिकारियों के अनुसार मालाबार में १५४० तक कोई लगान नहीं.
वसूला जाता था | कन्नड़ जिलों में १५ वीं शताब्दी तक लगान नहीं था और
राममाड जैसे जिलों में १9६० तक बहुत थोड़ा लगान लिया जाता था |
तिरुअनंतपुरम में १६ वीं शताब्दी के आरंभ तक पाँच से दस फीसदी लगान
ही वसूला जाता था | शिखर के राज्य के ढाँचे के लिए भारत में पिछले पूरे
इतिहास में बहुत कम भाग छोड़ा जाता रहा है | यह १८०० तक मान्यम भूमि
पर खेतिहरों द्वारा चुकाए जाने वाले लगान से भी स्पष्ट है | थामस मुनरो के
अनुसार अंग्रेजों द्वारा लगाए गए लगान के करीब एक चौथाई के बराबर ही
वह बैठता था | बहुत से मौकों पर तो खेतिहर अपनी इच्छा से मान्यम के
. अधिकारी को जितना उचित समझता था देता था | बंगाल के कलेक्टर ने
१७७० की अपनी रपट में उन परिस्थितियों का जिक किया है जिनमें अंग्रेजों
के ऊँचे यानी परंपरागत लगान से चौगुने लगान के वसूले जाने से परेशान
होकर लोग अपनी जमीन छोड़ कर मान्यम गाँवों में खेती करने के लिए
जाने लगे थे। मद्रास प्रेसीडेंसी में यह स्थिति १-२० तक जारी रही और
थामस मुनरो को मान्यम के अधिकांरियों को धमकाना पड़ा कि उन्होंने
किसानों को अपने यहाँ आने दिया तो उन्हें मान्यम की भूमि से हाथ धोना
पड़ेगा | . 339, ः
इन आँकड़ों के संदर्भ में यह जान लेना उपयोगी होगा कि १५५६
से १७०७ के बीच शासन करने वाले मुगलों के खजाने में कुल उपज का २०.
फीसदी से ज्यादा कभी नहीं पहुँचा था और जहाँगीर के जमाने में तो उसका
राजस्व गिरकर देश के कुल अनुमानित उत्पादन के पॉच फीसदी से भी
कम रह गया था | यह जानना भी उपयोगी होगा कि चीन में राज्य को दिया.
जाने वाला लगान १६ वें भाग के बराबर बताया जाता है। उस जमाने में
अगर चीन में यह हालत थी तो मानना चाहिए कि पूर्व और दक्षिण पूर्व
एशिया के दूसरे देशों में भी मोटे तौर पर यही व्यवस्था होगी | मनु संहिता में
कुल उपज में राज्य का भाग अधिक से अधिक छठवाँ बताया गया है,
लेकिन आमतौर पर बारहवाँ हिस्सा लिए जाने की बात कही गई है | अंग्रेजों
ने १८८० के बाद अनेक कारणों से मनु संहिता को अत्याधिक महत्व देना
शुरू कर दिया था | १८१५ में जब लंदन में भारत की विभिन्न शास्त्रीय |
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