उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र | PEDAGOGY OF THE OPPRESSED

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पॉलो फ्रेरा - PAULO FRIERE

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रमेश उपाध्याय - RAMESH UPADHYAY

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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30 उत्पीडितों का शिक्षाशास्त्र सृजन और पुनर्सुजन कर सकने वाली अपनी सत्ता से विश्व का रूपांतरण करें। यही उत्पीड़ितों का वह त्रासद धर्मसंकट है, जिसका ध्यान उनकी शिक्षा में अवश्य रखा जाना चाहिए।.... ह . इस पुस्तक में उस चीज के कुछ पक्षों को प्रस्तुत किया जाएगा, जिसे लेखक ने उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र' (पेडागॉजी ऑफ द ऑप्रेस्ड) कहा है। इस शिक्षाशास्त्र का निर्माण उत्पीड़ितों (चाहे वे व्यक्ति हों या समूचे जनगण) के लिए नहीं, बल्कि उनके साथ और उनकी मनुष्यता की पुनर्प्राप्ति के लिए जारी अनवरत संघर्ष में किया जाना आवश्यक है। यह शिक्षाशास्त्र उत्पीड़न और उसके कारणों को उत्पीड़ितों द्वारा विचार करने की वस्तु बनाता है, और उस विचार के जरिए अपनी मुक्ति के लिए किए जाने वाले संघर्ष में उनकी आवश्यक संलग्नता को संभव बनाता है। और इसी संघर्ष में यह शिक्षाशास्त्र निर्मित और पुनर्निर्मित होगा। द केंद्रीय समस्या यह है : उत्पीड़ित लोग, जो विभाजित हैं और अप्रामाणिक अस्तित्व वाले मनुष्य हैं, अपनी मुक्ति के शिक्षाशास्त्र के विकास में किस प्रकार सहभागी हो सकते हैं ? उनका मुक्तिदाई शिक्षाशास्त्र उन्हें उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने वाली दाई है, जिसके काम में वे तभी अपना योगदान कर सकते हैं, जब वे स्वयं को उत्पीड़क के 'मेजबान” के रूप में पहचानें। जब तक वे उस द्वैत में पड़े रहेंगे, जिसमें ना” तो होता है होने जैसा' और होने जैसा होता है उत्पीड़क होने जैसा; तब तक उनका यह योगदान असंभव है। उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र उनकी इस आलोचनात्मक खोज का औज़ार है कि वे और उनके उत्पीड़क, दोनों ही अमानुषीकरण की अभिव्यक्ति हैं। द इस प्रकार मुक्ति एक प्रसव है और यह प्रसव पीड़ादायक है। इससे जो मनुष्य पैदा होता है, एक नया मनुष्य होता है, जिसका जीवित रहना तभी संभव है, जब उत्पीड़क-उत्पीड़ित के अंतर्विरोध के स्थान पर सभी मनुष्यों का मानुषीकरण हो जाए। अथवा, दूसरी तरह से कहें तो, इस अंतर्विरोध का समाधान उसी प्रसृति में जन्म लेता है, जिसमें नया मनुष्य पैदा होता है-ऐसा नया मनुष्य, जो न तो उत्पीड़क है न उत्पीड़ित, बल्कि जो स्वतंत्रता प्राप्त करने की प्रक्रिया में है। यह समाधान आदर्शवादी ढंग से नहीं किया जा सकता। उत्पीड़ितों को अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष शुरू करने में समर्थ होने के लिए यथार्थवादी होना पड़ेगा। उन्हें उत्पीड़न के यथार्थ को ऐसी बंद दुनिया के रूप में हरगिज नहीं देखना चाहिए, जिससे निकल पाना संभव नहीं। उन्हें उसको ऐसी अवरोधक स्थिति के रूप में देखना चाहिए, जिसे वे बदल सकते हैं। यह बोध आवश्यक है, किंतु अपने-आप में मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। इस बोध का मुक्तिदाई कर्म के लिए प्रेरित करने वाली शक्ति बनना आवश्यक है। उत्पीड़ितों का यह जान लेना भी अपने-आप में मुक्ति नहीं है कि उनका अस्तित्व एक प्रतिपक्ष के रूप में उस पहला प्रकरण 31] उत्पीडन के साथ दुंद्वात्मक रूप में संबद्ध है, जिसका अस्तित्व उनके बिना संभव कल हेगेल की पुस्तक 'दि फिनोमिनोलॉजी ऑफ माइंड')। उत्पीड़ित लोग जिस अंतर्विरोध में फंसे हुए हैं, उसे वे तीर कर सकते हैं, जब उनका यह उन्हें अपनी मुक्ति के संघर्ष में प्रवृत्त करें। हर यही बात एक व्यक्ति के रूप में किसी उत्पीड़क के बारे में भी सच है। यह जान लेने से कि वह उत्पीड़क है, उसे काफी मनोव्यथा हो सकती है, लेकिन जरूरी नहीं कि इतने-भर से वह उत्पीड़ितों के साथ एकजुट हो जाए। इससे काम नहीं चलेगा कि वह अपने अपराध-बोध को तर्कसंगत बनाने के रह लिए उत्पीड़ितों के साथ पितातुल्य व्यवहार करने लगे, किंतु ऐसा करते हुए भी उन्हें स्वयं पर निर्भर रहने की स्थिति में जकड़े रखे। एकजुटता का तकाज़ा है कि आदमी जिनसे तादात्म्य स्थापित कर रहा है, उनकी स्थिति में प्रवेश करे । यह एक आमूल-परिवर्तनवादी भंगिमा है। अगर, जैसा कि हेगेल ने कहा है,“ उत्पीड़ितों की विशेषता यह है कि वे मालिक की चेतना के अधीन रहते हैं, तो उत्पीड़ितों के साथ सच्ची एकजुटता का मतलब यह है कि उस वस्तुपरक यथार्थ को, जिसने उन्हें “किसी और के लिए जीने वाला' बना रखा है, बदलने के लिए उनके पक्ष में खड़े होकर लड़ा जाए। उत्पीड़क उत्पीड़ितों के साथ तभी एकजुट हो सकता है, जब वह 308 को एक अमूर्तत कोटि समझना बंद कर दे और उन्हें ऐसे व्यक्तियों के रूप में देखें, जिनके साथ अन्याय हुआ है; जिनसे उनकी आवाज़ छीन ली गई है; जिनके साथ उनके श्रम को खरीदते समय धोखाधड़ी की गई है। अर्थात्‌ वह उत्पीड़ितों के साथ तभी एकजुट हो सकता है, जब वह धर्मपरायण, भावुकतापूर्ण और व्यष्टिपरक किस्म के दिखावे बंद कर दे और प्रेम के कर्म में आने वाले जोखिम उठाए। सच्ची एकजुटता प्रेम के इस कर्म की परिपूर्णता में ही पाई जाती है; उसकी अस्तित्वात्मकता में ही, उसके आचरण में ही पाई जाती है। यह स्वीकार करना कि मनुष्य जनता है और जनता को स्वतंत्र होना चाहिए, लेकिन इस बात को यथार्थ बनाने के लिए ठोस रूप में कुछ न करना, एक ढोंग है। हे चूंकि उत्पीड़क-उत्पीड़ित का अंतर्विरोध एक ठोस स्थिति पर स्थापित होता है, इसलिए इस अंतर्विरोध के समाधान का वस्तुपरक रूप से सत्यापनीय होना निहायत जरूरी है। अतः आमूल-परिवर्तनवादियों के लिए (अर्थात्‌ उस आदमी के लिए, जिसे पता चल गया है कि वह उत्पीड़क है, और उन लोगों के लिए भी, जो उत्पीड़ित हैं) आवश्यक हो जाता है कि उत्पीड़न को जन्म देने वाली स्थिति को बदला जाए। | यथार्थ के वस्तुपरक रूपांतरण की इस आमूल-परिवर्तनवादी मांग को प्रस्तुत करने और उस आत्मपरकतावादी जड़ता का, जिसके चलते उत्पीड़ित लोग उत्पीड़न की पहचान हो जाने पर भी इस भ्रम में पड़ सकते हैं कि घिर्यपूर्वक प्रतीक्षा करते




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