श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ 2000 - 2010 | SHRESTH HINDI KAHANIYAN 2000 - 2010

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खगेन्द्र ठाकुर -KHAGENDRA THAKUR

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8 श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (2000-2010) हटा दिया जाता। काम का बोझ इतना होता...माल की माँग इतनी होती कि इन हटाई गई शीशियों की ओर किसी का ध्यान ही न जाता। वे वैसी ही खाली पड़ी रहतीं। घर में सैकड़ों ऐसी शीशियाँ इधर-उधर पड़ी हुई आज भी देख सकते हैं। दूर दराज से आने वाले व्यापारी पहले एक-दो दिन तो बारादरी के ऊपर वाले कमरों में आराम करते। वहीं वे अपना खाना खुद बनाते जिसके लिए पूरा इन्तजाम रहता। फिर वे अपनी शीशियाँ गिनवाते, और शीशियाँ गिनवाते-गिनवाते शिकवा शिकायत करते, नफा-नुकसान बताते, हँसी-मजाक करते, कीमत को कम-बेश करवाते और फिर उनके हाथ अपनी धोतियों,, लुंगियों की टेंटों या मिर्जज और सदरियों की अन्दरूनी जेबों की तरफ बढ़ जाते। पंडित हरिनारायण, जो हमारे यहाँ खानदानी मुंशी थी, अपने चश्मे के अन्दर से सबकुछ देखते रहते, बात बिल्कुल न करते। कलम को दावात में डुबोते, दीवाल पर छिड़कते और अपनी लाल पोथी में दर्ज कर लेते। व्यापारी चले जाते, कारीगरों की एक महीने की छुट्टी हो जाती, बारादरी में ताला लग जाता, पेट्रोमैक्स का तेल निकालकर टाँग दिया जाता, लेकिन खुशबू हमारा पीछा न छोड़ती। अब, श्रीमान जी, खुशबूदार तेलों को छोड़कर कागज के टुकड़ों का व्यापार करूँ, मन तैयार नहीं होता है। लेकिन मरता क्या न करता ! अब यही करूँगा। एक बार बात अगर मन में जम गई तो बिजनेस जमा लूँगा। ठान लूँगा तो कर लूँगा। बस ठानने भर की बात है। रात भर सोचने का मौका दीजिए अभी-अभी मौलाना अजीबुर्रहमान के पड़पोते साहब ने, जिनका नाम रहमान है, अपना परिचय समाप्त किया है। इसमें उन्होंने खुशबूदार तेल का धन्धा बन्द करके लाटरी-टिकट बेचने का कारोबार शुरू करने की बात कही है। में इस कहानी को वहीं से पकड़ता हूँ। ऐसे तो रहमान भाई को मैं बचपन से जानता हूँ। लेकिन करीब से तब से जानता हूँ जब से खुशबूदार तेलों के धन्धे में उन्हें घाटा होना शुरू हुआ। घाटा तो पहले से शुरू हो गया था और रही सही कसर पुलिस वालों ने ढेर सारे संगीन इल्जाम लगाकर पूरी कर दी। रहमान मियाँ को तो याद नहीं लेकिन सच्चाई यह है कि लाटरी के नए धन्धे के बारे में मैंने ही उन्हें राय दी थी। अब जबकि लाटरी वाला धन्धा वे शुरू करने वाले हैं, कभी-कभी मुँह में पान दबाकर...बाल खुजलाते हुए याद करने का बहाना करते हैं-अमा राइटर साहब, तेल का काम बन्द होने के बाद तो लगता था फाके करने पड़ेगे। लेकिन एक हमदर्द दोस्त ने इस नए काम के बारे में बताया...और ऊपर वाले का करम है कि मन में बात जम गई है। मैं उन्हें बीच में टोकता हूँ-भई सारे जहाँ का दर्द मेरे जिगर में है, मैंने ही तुमसे कहा था तेलीपना छोड़ो, लाटरी का कारोबार शुरू करो। किस्मत का क्या भरोसा..फिर से चमक सकती है। वे पान थूकते हुए कहते हैं- तार 9 बस यही तो याद नहीं कि कौन बन्दा था। तुम्हीं थे क्या? मैं हँसने लगता हूँ। दरअसल ऐसा कई बार हो चुका है। और इसी मरहले पर आकर बात खत्म हो जाती है। ये नेकदिल लोग हैं। इनके वालिद भी अच्छे इन्सान थे। बस ये लोग थोड़ा अकड़ू हैं। कोई बात लग गई तो ठान लेते हैं। हाँ अगर ठान लिया तो कर दिखाते हैं। जाने कहाँ से यह सिफत आई है इनमें। तेल का धन्धा ऐसा खराब नहीं हुआ था कि उसे बन्द ही कर दें। बस किसी ने शिकायत कर दी कि मोर छाप तेल वालों ने मदरसों में चन्दा बढ़ा दिया है। बस क्‍या था सी.आई.डी. वाले पीछे पड़ गए। नुकसानदेह केमिकल मिलावट की शिकायत तो अलग से चल ही रही थी। रहमान भाई के वालिद ऐसे कि घूस देने को तैयार नहीं। कोर्ट-कचहरी करते-करते, सी.आई .डी. वालों को जवाब देते-देते पिछले साल चल बसे। रहमान भाई ने कारोबार सँभाला ही था...ठीक-ठाक चल भी रहा था कि वह कश्मीर वाली बात हो गई। वहाँ के कुछ व्यापारी मोर छाप तेल लेने आए थे। आते ही रहते थे। जाड़े में ऊधर से ऊनी सामान लाते और इधर से मोरछाप तेल की शीशियाँ ले जाते। मोर छाप चिब्बी के नीचे लिखा होता था-यह तेल दिल्‍ली, सिरीनगर, अमृतसर, लाहौर और पेशावर तक भेजा जाता है। जबकि बँटवारे के बाद यह तेल पाकिस्तान नहीं जाता था लेकिन चिब्बी पर इबारत बरकरार थी। पिछले साल की ही तो बात है। रात में पुलिस और एस.टी.एफ. ने धावा बोला और सबको उठाकर ले गए। इल्जाम लगाया कि शीशियों में यहाँ से तेल भर कर जाता है और वहाँ से तबाही का लिक्विट आता है। कश्मीरियों और उनके कम्बलों और चादरों का तो कुछ पता न चला। हाँ एक महीने बाद रहमान भाई शकल सूरत बिगाड़कर वापस लौटे। बस तभी से तेल के धन्धे से हीक हो गई। लेकिन चोट भी पहुँची थी। ठीक दिल पर लगी थी। लेकिन कर क्या सकते थे। सी.आई .डी का मामला था। पीले झण्डे वालों ने घर के सामने ही धरना दे दिया...नारे लगाने लगे...पोस्टर छाप डाले ...पोस्टर में रहमान भाई के मुँह पर कालिख पोत डाला...गद्दार और आतंकवादी बना डाला। अभी पिछले ही महीने यही मुकाम था जब मैं एक शाम उनके साथ बैठा लाटरी की टिकटों के बारे में सोच रहा था। जब मैंने उन्हें यह सुझाव दिया तो वह भी सोचने लगे। फिरे मैंने उन्हें एक नाम भी सुझाया भारत माता लॉटरी केन्द्र या फिर हिन्दुस्तान लॉटरी सेंटर जेसा कुछ रख लें...नहीं तो गाँधी या नेहरू के नाम पर...। वे हँसते हुए पूछे मोर छाप लॉटरी सेंटर नहीं चलेगा क्या? मोर तो हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। मैंने संजीदगी से कहा, देखिए एक बार बदनामी हो जाने के बाद...। वे और जोर से हँसने लगे फिर बोले नाम के बारे में मुझे सोचने दो। दो दिन बाद रहमान भाई ने मुझे बुलाया। में समझ गया नाम के बारे में ही कुछ होगा। बात वही थी। चाय पिलाने के बाद वे मुझे अन्दर वाले कमरे में ले गए और




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