असफल स्कूल | THE UNDERACHIEVING SCHOOL

THE UNDERACHIEVING SCHOOL by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaजॉन होल्ट -JOHN HOLT

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कुछ सोचने तक की फुर्सत नहीं मिलती। जैसा कि यूनान में पुराने जमाने में होता था वे पढ़ने-लिखने के बाद अपने समाज के साथ जुड़कर उसमें योगदान नहीं देना चाहते। छात्रों को अपनत्व का अहसास नहीं होता। उन्हें लगता है कि कोई अमानवीय मशीन उन्हें अपने स्वार्थों के लिए ढाल रही हो। मेरे छात्र मुझसे पूछते हैं, “में अपने आपको कैसे बचा सकता हूँ? मैं अपने अंदर के असली इंसान को इस समाज से कैसे सुरक्षित रख सकता हूँ?” प्रश्न पूछने के बाद वो निराश होकर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वे अपनी अस्मिता को नहीं बचा पाएंगे। पौल गुडमैन ने शायद ठीक ही कहा था कि हमने अपने प्रतिभाशाली छात्रों पर गुलामी की मनोदशा थोपी है। हमने नई पीढ़ी को, जीवन के सुंदर लक्ष्य और सपने न देकर, उन्हें पराधीनता और गुलामी की बेडियां दी हैं। अब उनमें अपने सपनों को जीने के लिए ज्ञान की चाह और न ही सत्ता की ललक नहीं बची है। इसलिए वो बताए हुए कार्यों को ही अच्छी तरह करते हैं क्योंकि उनमें मना करने की हिम्मत अब नहीं बची हे। छात्रों में मिशन की भावना को नष्ट करके हम, काम और आराम के क्षणों में उनके आनंद को भी भ्रष्ट कर देते हैं। थोरू ने लिखा था: 'सबसे निपुण मजदूर अपने दिन को काम के बोझ से नहीं भरेगा। वो उस कार्य को चुनेगा जो उसे आसान और आनंददायी लगेगा।' आदमी में काम करने की प्रबल इच्छा हो, यानी वो अपने आपको उस काम से रोक ही न पाए और काम मिलते ही उसमें आनंद विहोर हो उठे। जो व्यक्ति इस अनुभूति से वंचित है उसे अवश्य किसी ने छला है। वो अब काम को ठीक से नहीं करेगा। शायद वो कार्य करने लायक ही न हो। मुझे अपने एक पुराने छात्र की याद है। उसे कई हफ्तों तक, छुट्टी के दिनों में भी, काम पूरा न करने के कारण स्कूल में रोक कर रखा गया। जब एक छुट्टी वाले दिन मैं उससे मिला तो वो अपनी रूचि के एक काम में व्यस्त था। वो एक छोटे प्रिंटिंग प्रेस पर काम कर रहा था। मैंने रोष में उत्तेजित होकर उससे पूछा, 'अगर तुम अपनी मनमर्जी के काम ही करोगे तो तुम उन्हीं कामों को ही क्‍यों नहीं करते रहते।' उसने धीरे से मुझे बड़ा समझदारी का जवाब दिया, “नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकता। वो मुझे और काम सौंप देंगे जिसे मुझे करना ही होगा।' पहले के अपेक्षा यह सच्चाई आज ज़्यादा प्रखर है। स्कूल अपने आपसे यह नहीं कह सकते, “देखो, अब बहुत हो चुका।' अगर ऊंचे छल्ले को बच्चा पार कर लेता है तो स्कूल उसे सफलता की निशानी मानकर छल्ले को और ऊंचा उठा देते हैं। इन दबावों के विकराल प्रभाव हमें साफ-साफ दिखाई देते हैं। इनसे मनोवैज्ञानिक विचलन और खुदकशी बढ़ी है। छात्र शराब और डृग्स का अत्याधिक सेवन करने लगे हैं। न केवल असफल छात्रों में परंतु तेज, प्रतिभाशाली छात्रों में भी नकल की वारदातें भी बढ़ी हैं। यह एक दुखद बात है कि हमारे बहुत से अच्छे और काबिल छात्र इस बात से पूर्णतः: सहमत हैं कि सफलता के लिए उन्हें नकल करनी ही चाहिए। सफलता उनके लिए इतनी महत्वपूर्ण हो गई है कि उसके लिए नकल करना भी सही काम बन गया है। अच्छे अंक पाने के दबावों के कारण, सीखने की प्रक्रिया ही भ्रष्ट हो गई है। कथनी चाहें कुछ भी हो, परंतु हमारी करनी उसकी उल्टी होती है। जिस प्रकार हम पुरुस्कार बांटते हैं, उससे छात्रों को लगता है कि सीखना समझ और आनंद के लिए नहीं, बल्कि कोई इनाम पाने के लिए है। स्कूलों और कालेजों में विषय की असली समझदारी जरूरी नहीं है, महत्वपूर्ण बात है कुछ लोगों को ऐसा लगे कि तुम्हें आता है। ज्ञान इसलिए मूल्यवान नहीं होता क्योंकि हम उससे सामाजिक और निजी समस्याओं को सुलझाते हैं, पर इसलिए क्योंकि ज्ञान एक बाजारू माल है जिसे हम ऊंचे दाम पर बेंच सकते हैं। स्कूल एक धोखाधड़ी का कारोबार बन गया है। स्कूल में सफलता पर ही असली जिंदगी की सफलता निर्भर करती है जो इस खेल को सही तरीके से खेलने से ही हासिल होती है। क्या स्कूलों और कालेजों को ऊंचे ग्रेड्स और परीक्षाफलों की मांग को कम करने या हटाने के लिए राजी किया जा सकता है? कई कारणों से स्कूल और कालेज इस बात को नहीं स्वीकार करेंगे। पहले, उन्हें इस बात का कोई अंदाज ही नहीं है कि प्रतिष्ठा की इस प्रतिस्पर्धा से, कितने अधिक अमरीकी नौजवानों और शिक्षा का नुकसान हो रहा है। वो इसके बिल्कुल विपरीत शब्दावली - शिक्षा को अधिक उन्नत




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