अँधेरी रात के तारे | ANDHERI RAAT KE TAARE

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किशन सिंह चावड़ा - KISHAN SINGH CHAWADA

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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थापे मारे। फिर मेरा हाथ पकड़ कर चल दी और सीधी हमारे घर आ कर रूकी। माँ, पिताजी, पडौसी, सब हडबडा गये। बुआ भैया' ” कह कर पिताजी से लिपट गयी। उनके कुछ कहने से पहले ही पिताजी ने धोती के छोर से जख्म को दबा दिया। बुआ ने छोर हटा दिया और बोली, “भैया, उनके जाने के बाद मैं अधूरी तपस्या पूरी करने के लिए ही जा रही थी। पर आज मरने की घडी आ गयी है। आज दीदी ने मेरे मरे हुए स्वामी पर कलंक लगाया। में इसमें एक भी बात नहीं मानती। वे तो देवता थे। लेकिन दीदी शायद मुझे इसी प्रकार मारना चाहती है। तभी उनके मन को शांति मिलेगी। अब मैं उस घर में कभी वापस नहीं जाऊंगी। उस घर में किसी की शकल भी देखना नहीं चाहती।' ”* बुआ वही गिर पडी। माँ और पिताजी उन्हें उठा कर अंदर के कमरे में ले गये। डाक्टर आया। मैंने सुबकते हुए सारी घटना कह सुनाई। साँझ ढल रही थी। इतनी डरावनी शाम मैंने कभी नहीं देखी। लोगों से घर भर गया था। वातावरण दुख और वेदना से काँप रहा था। बुआ की अंतिम साँस चल रही थी। रक्‍्तस्राव बहुत आधिक हो चुका था। वैद्यजी पास ही बैठे थे। अचानक बुआ ने दम लिया और बोली, “बोली भैया...! “पिताजी कुछ पास सरक गये। हृदय की गहराई में से बुआ की आवाज निकली, ''भैया, वैसे तो वे गये उसी दिन जाने की इच्छा थी। लेकिन फिर सोचा कि सिर्फ जल मरने से तो सती नहीं हुआ जाता। और फिर मेरे लिए तो वे मर कर भी जीवित थे। आज उस निर्मल आत्मा पर उनकी माता समान भाभी ने झूठा कलंक लगाया। उनकी आत्मा को कितना क्लेश हुआ होगा। भैया, अब मुझे उनके पास जाना चाहिए। अब मैं जीना नहीं चाहती। मेरी चिंता जहाँ उन्हें अग्निदाह दिया था वही जलाना।” ” बुआ के अंतिम शब्द माने अंतर्मन की गहराई को फोड़ कर निकले। सांस रूक गयी। आँखे अपनी आप बंद हो गयी और प्राणपखेरू उड़ गया। वैद्यजी भी रो पड़े। सारे घर पर शोक की घनघोर घटा छा गयी। पिताजी ने बटालियन के केप्टन से मित्र कर बुआ का अग्निसंस्कार उसी जगह करने के लिए सरकारी अनुमति प्राप्त कर ली। जहाँ फूफाजी की चिता जली थी ठीक उसी जगह बुआ की चिता रची गयी। नश्वर शरीर पंचतत्व में मिल गया। बुआ की अस्थियों का नर्मदा में विसजर्नन किया गया। उसके बाद कई दिनों तक पिताजी राजमजदूर साथ लेकर अग्निसंस्कार के स्थान पर जाते रहे। वहाँ उन्होंने एक सुंदर छोटी सी मठी बननवायी। बुआ की मृत्यु के ठीक दशहरे के दिन हुई थी। उसी दिन हमारी कुलदेवी सिंधवाई माता का हवन होता था। मदी मंदिर के रास्ते में पड़ती थी। होम-हवन से वापस लौटते समय हम सतीचैरे पर फूल-कुंकुम चढा कर ही घर लौटते थे। वर्षों तक यह क्रम चलता रहा। फिर तो पिताजी चले गये। कभी-कभी याद दिल कर सतीचैरे पर भेजने पर भेजने वाली माँ भी चली गयी। हवन में जाना भी बंद हो गया। मठी की देखभाल नहीं रही। और आज तो उसके अवशेष भी दिखाई नहीं देते।




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