पर्यावरण पथ के पथिक | WALKING THE WILD PATH

WALKING THE WILD PATH by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaममता पंड्या - MAMATA PANDYAमीना रघुनाथन - MEENA RAGHUNATHAN

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ममता पंड्या - MAMATA PANDYA

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मीना रघुनाथन - MEENA RAGHUNATHAN

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धीरे-धीरे पिताजी का संकलन बढ़ता गया। उसमें शेर, चीते, हिरन, जेबरा, कंगारू, तरह-तरह के पक्षी और सांप जुड़ते गये और वो एक बहुत बड़ा चिड़ियाघर बन गया। वो पूरे एशिया का सबसे अच्छा चिड़ियाघर था क्‍योंकि पिताजी हरेक जानवर की खुद देखभाल करते थे। उनको शेरों और चीतों के पिंजड़ों में घुसते देखना एक आम बात थी। उन्होंने सहवास को लेकर कुछ प्रयोग भी किये। इनमें कुत्ते, बंदर और शेर बिना एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाये एक-साथ रहते थे। हरेक सुबह वो आठ बजे घर से निकल जाते और फिर रात को आठ बजे वापिस लौटते। उन्होंने चिडियाघर में रहने का घर स्वीकार नहीं किया क्‍योंकि वो अपनी व्यक्तिगत घरेलू जिंदगी में दखल नहीं चाहते थे। परंतु जब कभी जानवर बीमार होते तब तनाव के बहुत से क्षण आते। तब पिताजी बेचेन हो जाते और खाना-पीना छोड़ देते। अगर जानवर मर जाता तो वो कई दिनों तक सदमे में रहते। वो चिड़ियाघर के जानवरों से इतना प्यार करते थे कि जब मौंटू नाम का शेर बीमार पड़ा तो पिताजी के गले से एक कौर भी नहीं निगला गया। वो तब तक बहुत उदास रहे जब तक मौंटू ठीक नहीं हो गया। दो चिंपैंजी थे - एमिली और गाल्की, जिनके लिये पिताजी ने एक विशेष मीठी चटनी (जेली) बनायी थी। मैं अक्सर गालकी को अपने कंधे पर बिठाकर चिड़ियाघर में घूमती थी। पिताजी ने मुझे गाल्की को बालपेन से चित्रकारी करना सिखाने के लिये प्रेरित किया। मैंने गाल्की का हाथ पकड़ कर उसे चित्रकारी सिखायी। ये सुखद यादें अभी भी मैंने संजो के रखी हें। कभी-कभी चिडियाघर में तनावपूर्ण क्षण भी होते थे। एक बार दो चीते अपने पिंजड़ों से निकलकर बाहर आ गये। पिताजी अपने सहायक बाबू की मदद से उन दोनों चीतों को पिंजड़ों में वापिस लाये। एक बार दो बड़े अजगर कहीं से शहर में घुस आये! पिताजी ने उनको भी पकड़ कर सुरक्षित स्थान पर भेजा। उन्होंने कंकारिया झील में से एक आदमखोर मगरमच्छ को पकड़ा। इन सभी अवसरों पर उन्होंने कभी भी बंदूक का सहारा नहीं लिया। इन कहानियों की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने पूरे जीवन में पिताजी को किसी भी जानवर ने कभी भी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। इसके साथ-साथ पिताजी बहुत विनोदी और मजाकिया स्वभाव के थे। एक बार एक राजनेता ने पिताजी की मेज पर रखे शतुरमुर्ग के अंडे को देख बड़ी उत्सुकता दिखायी। पिताजी ने उन्हें बताया कि दुनिया के एक हिस्से में भेंस इस तरह का अंडा देती हैं! हमारे घर में मछलियों के कांच के घर के ऊपर मधुर गीत गाने वाली एक केनरी चिड़िया रहती थी। पिताजी ने अपने मित्रों को मनवा लिया कि मछलियां भी पक्षियों की तरह गा सकती हैं! एक बार जंगल विभाग के लोग हमारे घर में रखे पारितोषिक और मैडिलों की एक सूची बना रहे थे। वहीं एक कांच की बोतल रखी थी जो मुर्गे जैसी रंगी थी। पिताजी की बात पर अफसरों ने यह मान लिया कि वो बोतल असल में एक खास प्रजाती की चिडिया थी! एक आप्रेशन के बाद मेरे पिताजी की आवाज जाती रही। परंतु मेरे पिता फिर भी अपने पालतू जानवरों के बहुत करीब रहते। वो अपने हाथ से ही उन्हें आदेश देते और उन्हें प्यार करते। और जानवर भी उनसे अथाह प्रेम करते। मेरे पिताजी ने मुझे प्रकृति से प्रेम करना और उसकी इज्जत एंव संरक्षण करना सिखाया। पिताजी के साथ बडे होना अपने आप में एक बड़ी शिक्षा थी। उन्होंने मुझे उन सभी चीजों को प्यार करना सिखाया जो इंसानों के लिये महत्वपूर्ण हैं जैसे प्रकृति, साहित्य, चित्रकारी, मूर्तिकला, मिट्टी का काम, संगीत, कविता, इतिहास, मानव-विज्ञान, वास्तुकला, लोक कलायें, नृत्य, सिनेमा, संस्कृति, कुत्ते, पेड, मौसम और सबसे महत्वपूर्ण मूल्य - मानवता। मेरे लिये मेरे पिता टार्जज के समान थे। उन्होंने मुझे जीवन को शक्ति, व्यवहार-कुशलता और विनोदी तरीके से जीने के सबक सिखाये। प्रोफेसर एच वाय मोहन राम प्रोफेसर एच वाय मोहन राम ने कई क्षेत्रों में प्रतिभा हासिल की है। उनका जन्म 1930 में हुआ। 1953 से 1995




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