बूँद और समुद्र | BOOND AUR SAMUDRA

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अमृतलाल नागर - Amritlal Nagar

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छ -सात वर्ष पहले महिपाल शुक्ल के कारण ही उनका सज्जन से परिचय हुआ था। यह परिचय अब गाढ़ी मेत्री बन गया है। सज्जन, कर्नल और महिपाल अभिन्न माने जाते है । लेखक महिपाल इन दोनो से अपेक्षाकृत बहुत गरीब है, पर बडा मेहनती, खरा और दोस्ती निभानेवाला जीव है । ५ सज्जन के कमरे में पैर रखते ही कर्नल ने पूछा--- तुम्हे महाकवि बोर तो नही मिले थे ?” “नही | क्‍या आये थे यहाँ ?” “हाँ। मेने उन्हे पट्टी पडाकर रवाना कर दिया।” “साले यहाँ भी बोरियत फंलाने चले आते है ।” महिपाल बोला---इन कम्बख्त मुहल्लेवालो ने तुम्हारे खिलाफ अखबारो में शिकायत छपवाकर और तो जो कुछ बुरा किया सो किया, इस सीक्रेट अड्डे का पता जगजाहिर कर दिया, यह बहुत ही थुरा किया । बडी मुश्किलो से गए हें कविजी यहां से सिगरेट सुलगाकर अपने को दुशाले से अच्छी तरह लपेटकर बेठते हुए सज्जन खामोशी में डूब गया । करने उसकी तरफ गौर से देखकर बोला---क्यो आज फिर कोई नई बात हो गई है ? ” “नही, कोई खास नही । द्वारकादासजी आये हए हे यहाँ।” “द्रकादासजी ? राजाबहादुर ”” “हैं। अपनी पटरानी के महलो में हे इस वक्‍त । यार ये औरत तो गजब की कंरेक्टर है । जादू के पुतले बनाती है ।” सज्जन ने थोडी देर पहले घटी हुई आपबीती सुनाई । कर्नेल परेशान हो गयें--- “तुमने बह पुतला छूकर अच्छा नही किया ।” “मुझे क्या मालूम था बे! में समझा ताई के अकेलेपन का मनोरजन है । तुम यकीन मानों महिपाल, में बडा ही खुश हुआ, मगर” सज्जन हंसने लगा । हाथ बढाकर ऐशट्रे में राख झाडकर बोला--- मेने अपनी श्ञान में ट्रेंडिशनल इडियन स्टाइल की ऐसी ठेठ गालियाँ सुनी हे कि क्या बतलाऊँ |” छत पर किसी की छायाकृति झलकी । सज्जन का ध्यान उधर गया । राजाबहादुर सर द्वारकादास अग्रवाल दरवाजे पर खडे थे । सज्जन अदब से उठ खडा हुआ । कर्नेल साहब के चेहरे पर नम्अता की किरणे फूट पड़ी, आदर से हाथ जोडे । महिपाल बसे ही बैठा रहा । राजाबहादुर का ध्यात किसी की ओर भी न गया, हाथ के इशारे से सज्जन को बुलाते हुए उन्होने कहा-- यहाँ आना बेटा ! ” सज्जन फौरन उठकर बाहर आया । उसके कधे पर हाथ रखकर जीने की तरफ बढ़ते हुए द्वारकादास बोले--- आज की बातो का किसी से जिक्र न करना ।” “जो, कतई नही । आप विश्वास रक्‍्खे ।* “उनका दिमाग जरा पलटा हुआ है।” १२/बूँढ और समर




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