शिक्षा और जन आन्दोलन | SHIKSHA AUR JAN ANDOLAN

SHIKSHA AUR JAN ANDOLAN by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaसाधना सक्सेना - SADHANA SAXENA

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साधना सक्सेना - SADHANA SAXENA

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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30 ७ शिक्षा और जन आंदोलन हों जाएगा तब ये हमारी देखरेख तो कर पाएंगे!' इन सफलताओं और जोश के बावजूद दो औरतें ऐसी थीं जिनके बच्चे कक्षा चार के बाद पढ़ाई जारी नहीं रख पाए। कुछ के बच्चे कक्षा आठ तक पहुंचे तो कुछ बच्चों ने हाई स्कूल तक पास कर लिया और कुछ ने बारहवीं कक्षा भी | कुछ औरतों के बच्चों ने आई.टी. आई. से डिप्लोमा किया और इक्का- दुक्‍्का ने बी.ए. भी पास कर लिया। एक महिला के लड़के ने एम.ए. भी पास किया। छोटे बच्चे अभी भी स्कूल जा रहे हैं। द हमें आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई। इन पहली पीढ़ी में शिक्षा पाने वालों ने ढेरों बाधाओं के बावजूद बिना किसी मदद के इस स्तर तक पहुंचकर सचमुच कमाल ही कर दिया। इनके मां-बाप ने पेट काटकर अपनी कड़ी मेहनत की कमाई से इनके लिए किताबें खरीदी और स्कूल में दाखिला लेने के लिए शिक्षक को मजबूरन घूस भी दी। यह इतनी सफल केस स्टडी लगी कि हमें लगा अब हमारे पास कहने को कुछ है नहीं। दिल-ही-दिल में बहुत प्रसन्‍त हुए कि चलो कुछ लोगों ने तो फतह हासिल की | हमें बिलकुल अंदाज नहीं था कि यह फतह ही इन मजदूरों के लिए कितनी निराशा का स्रोत बनेगी। औरतों में हमें बताया कि सब पढ़े-लिखे बच्चे अब घर में बैठे हैं |' ये पढ़े-लिखे बच्चे अब क्या करें? ये घर में बेकार बैठे हैं। ये न तो कड़ी मेहनत के काबिल रहे हैं और न मेहनत करना ही चाहते हैं। हमने भी तो उन्हें ये काम करने के लिए तैयार नहीं किया था। हमने लगभग भूखे रहकर इन्हें पढ़ाया है । अब हम क्या करें ?' सुखवंती बाई पूछ रही थी। 'हम इस उम्मीद में पत्ता-भाजी खाकर जिए कि हमारे दिन बदलेंगे। मेरे बच्चे तो अब और पढ़ना ही नहीं चाहते। वे कहते हैं कि यदि हमें आपकी तरह हो कड़ी मेहनत करनी है तो हम पढ़ाई क्‍यों करें 2' बरातिन बाई ने कहा | प्यारीबाई ने बहुत निरोश होकर बतलाया, 'हमारे बच्चों की हालत हमसे भी बदतर हो गई है। ये कड़ी धूप में खड़े होकर मेहनत मजदूरी नहीं कर सकते और इनके लिए नौकरियां हैं नहीं।” अपने और अपने बच्चों के भविष्य की चिता में डूबी हुई ये महिलाएं महसूस कर रही थीं कि उनकी आशाएं टूट गई हैं। हरएक महिला ने अपनी इस त्कलीफदेह निराशा का इजहार किया। महिलाओं के ये अनुभव सुनकर हम कुछ बोल ही नहीं पाए (चुप रह गए, सनन्‍न रह गए) | उनके जीवन के अनुभवों को सुनकर हमारी तय की हुईं प्राथमिकताएं तितर- बितर हो गईं। कुछ समय तक हम सोच ही नहीं पाए कि आगे कैसे बढ़ें | एक महिला ने एक टिप्पणी करके चुप्पी का माहौल तोड़ा, 'यह सच है कि हमारे बच्चों को नौकरियां नहीं मिलीं, परंतु शिक्षित होने से उन्हें 'बुद्धि' तो आ गई।' डूबते हुए स्रोत व्यक्तियों को जैसे तिनंके का सहारा मिला | कुछ लोगों ने इस मौके को चूके त्रिना घिसा-पिटा राग अलाप दिया। उन्होंने दोहराया कि कैसे शिक्षा से जानकारी का आधार बढ़ता है, चेतना बढ़ती है और बुद्धि आती है जिससे गरीब लोग अपने अधिकारों--जैसे न्यूनतम मजदूरी आदि के लिए लड़ सकते हैं । यदि इन औरतों को काम के घंटों, मजदूरी और अपने अन्य कानूनी अधिकारों की जानकारी होगी तो ठेकेदार इन्हें ठग नहीं पाएंगे, आदि आदि। यह मुख्य औपचारिक शिक्षा की सीमाएं और जटिलताएं# 31 प्रश्नों से पलायन था जिन्हें औरतों ने 'बुद्धि' की चर्चा से पहले उठाया था। इन मुद्दों पर संघर्ष करने के लिए मजदूर इंतजार नहीं करते। सरदार और ठेकेदारों के खिलाफ अपनी मजदूरी के लिए इन औरतों के संघर्षों की कहानियां हमारे दिमाग में अभी भी ताजा थीं। इन ' अनपढ़ औरतों को मालूम॑ है कि राजनीतिक संघर्षों से ही इन्हें अपने अधिकार प्राप्त करने होंगे। साफ तौर पर परिप्रेक्ष्यों में टकराब उभरकर सामने आया। जिन्होंने भूखे रहकर अपने बच्चों को इस उम्मीद में पढ़ाया कि पढ़ने-लिखने से उन्हें नौकरियां मिलेंगी और उनके जीवन के कष्ट कम होंगे, उन औरतों को हम समझा रहे थे कि शिक्षा मात्र नौकरी के लिए नहीं है। शिक्षा से 'बुद्धि' आती है। खैर, इस प्रकार बात को बदल देने से उन महिलाओं द्वारा उठाया गया गंभीर मुद्दा रफा-दफा नहीं हो जाता | शिक्षा का अर्थ यदि बेहतर जीवन है तो जिन लोगों को दो वक्‍त का खाना भी नहीं मिलता उनके लिए बेहतर जीवन का पहला अर्थ क्या इज्जत से पर्याप्त भोजन मिलना नहीं होगा? एक मध्यम उम्र के स्थानीय स्रोत व्यक्ति मोतीलाल नें शिक्षित बेरोजगारों की समस्या को और स्पष्ट किया। अपना अनुभव बताते हुए उसने कहा, ' मैं बी.ए. पास हूं। हम आठ भाई-बहन हैं। मेरा एक भाई एम.ए. है। हम दोनों भाई बेरोजगार हैं। 1985 के अकाल के दौरान हमारा पूरा परिवार दिल्‍ली पलायन कर गया था और हमने बदरपुर ताप बिजलीघर में मजदूरी की थी। मेरे तीन छोटे भाइयों ने निर्माण स्थलों पर छोटे-मोटे काम किए थे। वहां वे बहुत सारे लोगों से मिले। कुछ ट्रक ड्राइवरों के साथ काम करने लगे। उन्होंने वहां रहते हुए किसी प्रकार ड्राइवरी का काम सीख लिया। उनमें से दो को ड्राइवरी की नौकरी भी मिल गई है। वे पांचवीं तक ही पढ़े-लिखे हैं। वे अपने नियंता खुद हैं। तीसरे भाई को भी जल्दी ही ऐसी ही नौकरी मिल जाएगी। पर हम दोनों शिक्षित भाई बेरोजगार ही रह गए।' फिर उसने जल्दी से जोड़ा, 'हम भी खेतों पर काम करते हैं । कभी हम अपनी जमीन पर काम करते हैं और कभी दूसरों की जमीन पर मजदूरी करते हैं। यह हमें बुरा नहीं लगता है, पर हमारी पढ़ाई का खास लाभ हमें नहीं मिला।' अंत में हमने औरतीं से पूछा कि उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षित करके क्‍या पाया? सुखबारा बाई ने काफी कष्ट से लंबी सांस भरकर कहा, ' मैं अभी भी एक प्रवासी मजदूर हूं। हर वर्ष, जब खेती-किसानी का काम नहीं होता तब हमें घर छोड़कर काम की तलाश में बाहर जाना पड़ता है । हम काम की तलाश में जम्मू-कश्मीर तक जाते हैं | मेरा लड़का बारहवीं पास है और घर में बेकार बैठता है। वह कड़ी मेहनत नहीं कर सकता। इस बार में उसे भी अपने साथ ले गई थी। मैंने सरदार से हाथ जोड़कर कहा था कि मेरा लड़का पढ़ा-लिखा है। धूप में खड़ा होकर मेहनत-मजदूरी नहीं कर सकता। कृपया उसे कुछ हलका काम दे दो। शायद स्कूल जाए बिना उसकी हालत बेहतर होती । कम से कम उसे काम दिलवाने के लिए सरदार के सामने हाथ-पैर तो नहीं जोड़ने पड़ते। हमने अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर यही पाया है।' सुखबारा बाई का यह कथन आज की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक




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