इन्कलाब | INQUILAB

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ख्वाजा अहमद अब्बास - Khwaja Ahamad Abbas

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्८ इस्कलाब बेठ सकता । और बहरहाल मैं तो अभ्रपने कारोबार के सिलसिले में जा रहा हूं। ' मैं वहां कोई सियासी तहरीक चलाने तो जा नही रहा हु, फिर मुर्भे कुछ क्यो होने लगा ?” “फिर भी भाई साहब,” रामेश्वरदयपल ने हिम्मत करके कहा--रामेद्वर- दयाल यों तो उम्र मे श्रकबरझली के बराबर ही थे पर वे हमेशा उन्हें अपना बडा भाई मानकर भाई साहब' कहते थे--“भ्रगर जरा भी खतरा हैतो मैं तो यही कहगा कि आप वहा ने जाए ।” “रामेशवर, नादानी की बाते न करी । जब तक मै अ्रमृतसर जाकर मिलो के साथ माल का बदोबस्त नहीं करू गा तब तक हम अपना यह ठेका पूरा नही कर सकते । मैं कल सुबह ही चला जाऊंगा ।* ग्नवर को अब्बा का इस तरह दो टूक अपना पक्‍का इरादा जाहिर कर देना बहुत पसद था । वे किसी बात से घबराने या डरनेवाले नहीं थे। अगर कोई काम करना होता था तो वे उसे पूरा करके ही छोडते थे, चाहे कुछ भी हो जाए। अनवर का हृदय एक बार फिर गये से भर उठा । और फ़िर उसका गव॑ से भरा हुआ हृदय जोर से धडका, उसके कानो मे घटिया-सी बजने लगी, और खुशी के मारे उसके सारे शरीर मे हलकी-सी कपकपी दौड गई । “अनवर |” उसके श्रब्बा ने उसकी तरफ देखकर पुकारकर कहा । “जी अब्बा “मेरे साथ अ्रमृतसर चलोगे ”” और यह कहकर वे मुस्करा दिए । यह सवाल इस तरह अचानक उसपर टूट पडा कि अनवर हवक्‍का-बकका रह गया ; उससे कोई जवाब देते 'न बन पडा । वह यह सुनने के लिए भी वहा ने रुका कि अकबर अभी अपने दोस्तो को यह समता रहे थे कि वे अपने झाठ बरस के बेटे को अपने साथ इसलिए ले जा रहे थे कि वे चाहते थे कि उसे दुनिया की खबर हो, यात्राए करके उसका दृष्टिकोश व्यापक हो और वह साहसी और निडर बने। अनुपर भागकर जनानखाने मे पहुच चुका था और अपनी बहिन के गले से लिपटकर बेहद खुश होकर कह रहा था, “बाजी श्रजुम, मैं श्रमुतसर जा रहा हूँ ।”




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