अँधेरी रात के तारे | ANDHERI RAAT KE TAARE

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किशन सिंह चावड़ा - KISHAN SINGH CHAWADA

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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फिर दोनों मित्रों में कुछ देर तक गपषप होती रही। गिरधर चाचा घर गये और उसी रोज चिट्ठी लिख कर मुरारी भाई को बुलाया। वे उन्हीं के घर ठहरे। चाचा ने पांच सौ रूपये चुका कर रसीद लिखवा ली। फिर उन्हें ले कर हमारे घर आये। मुरारी भाई ने पिताजी से सब बात कही। उस रोज को सब का भोजन हमारे ही यहां हुआ। देर तक बातें होती रही। बडा आनंद आया। फिर एकादषी आयी। गुरूदवारे में भजन का आरंभ हुआ। नियमानुसार साढै ग्यारह बजे गुरू महाराज दीपसंकर्शण के लिए उठे। विराम के बाद मृदंग मैंने संभाला। मृदंग पर थाप पड़ते ही गिरधर चाचा ने सस्मित वदन से स्नेहमिश्रित आवाज़ में कहा, “बडे भैया, केदारा गाइये।' ” ....और पिताजी ने केदार की साखी छेड़ दी। केदार षीघ्र ही जम कर वगरा उठा। करताल की वहीं खनकार, झांझ की वही झनकार, गिरधर चाचा का ही मोहकर और मधुर पंचम का स्वर और पिताजी की बुलंद आवाज का वही वैभव। ... उस दिन ऐसा लगा कि सुर की बैठक अलग-अलग होने पर भी इन दोनों मित्रों की आवाज में कितना साम्य है। मानो मित्रता की गूंज र्वरों में भी प्रतिध्वनित हो रही हो। आज भी वह आवाज़ याद है। ... खूब याद है। आज वह आवाज़ नहीं रही। ... पर उसका आलंबन मेरी स्मृति में सुरक्षित है। 5 प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो. . . पिताजी भक्त थे। निरांत संप्रदाय में उनकी गुरू परंपरा थी। “अर्जुननाणी' के रचयिता अर्जुन भगत उनके गुरुभाई थे। पिताजी ने भी सन 1913-14 में “'तत्त्वलार भजनावलि' नामक एक भजनसंग्रह छपवाया था। भजन गाने का उन्हें जन्मजात षौक था। प्रकृति ने बुलंद आवाज की देन दी थी। पुराने ठाठों की उनकी जानकारी गहरी थी। मारू, धनाश्री, गौंडी जैसे पुराने राग और भजनों की परंपरागत षुद्ध तर्ज और रूप उनके गले में सुरक्षित रहे थे। अपने रचे हुए भजनों के उपरांत, सूर, तुलसी, कबीर, रैदास, दादू और निरांत संप्रदाय के अन्य भक्तों के सैंकडो भजन उन्हें कंठस्थ से। अतः षाम को नित्यनियम से सत्संग की बैठक जमती। चांपानेर दरवाजे के खुषालदास काका अपनी जूतों की दुकान बंद कर के, नहा धो कर भजन मंडली में षरीक होते। दिन भर राजगीरी की कडी मजदूरी करने के बाद षाम को भोजन करके, हाथ में चित्रम त्रिये हुए फकीर काका आ पहुँचते। दोपहर की भयानक धूप में घाट पर कपडै धो-धो कर जिनकी चमडी खरे पक्के रंग की हो गयी थी वे लल्लू काका धोबी भी आते। दिन भर नगरपालिका की चिट्ठियाँ बांटते-बांटते थक जाने वाल जमादार ठाकुरसिंह रास्ते में ही इकतारे का तार छेड़ते हुए आते। सुबह, दोपहर और सांझ को एक मान कर, दिन भर चाक घुमा कर निर्जीव मिट्टी में से नाम-रूप वाली आकृतियाँ घड़ने वाले षामलदास कुम्हार कंधे पर ढोलक लटकाकर आते और मुहल्ले के नाके पर ही ढोलक पर थाप मार कर अपने आने की सूचना देते। उनकी पत्नी धूल्रों बुआ पिताजी की मुँहबोली बहन थी। हर साल उसे हमारे यहां से एक मन बाजरा मिलता था, जिसके बदले में साल भर तक मिट्टी के हर प्रकार के बरतन वह दे जाती थी। मुहल्ले के नत्न पर नहा-धोकर पुरूुशोत्तम काका भी सीधी मंडली में आते। पिताजी कहते कि पुरशोत्तम के जैसी दाढी बनाने वाला कारीगर तो विलायत में भी नहीं होगा। उनका हाथ इतना हलका था कि हजामत बनवाते समय लोगों को नींद आने लगती। यह पूरी मंडली दिन ढले बाद ही जमती थी। पहले जरा इधर-उधर की गपषप होती, फिर चित्नम और हुक्के का दौर चलता। धीरे-धीरे ढोलक की कड़ियां कसी जाती, इकतारे के तार गिलते, मजीरों की झंकार होती और बेनालूम भजन का आरंभ हो जाता। आठ बजे के करीब मुहल्ले का मेहतर धूल्रा भगत रोटी मांगने आता। लेकिन रोटी मांगना भूल क रवह दूर एक तरफ बैठ जाता और भजन में मस्त हो जाता। उसकी पत्नी महाकोर सुबह गली झाड़ने आती तब उसकी लापरवाही की माँ से रोज षिकायत करती। रोटी समय पर न पहुंचाने के कारण बच्चे रात को भूखे ही सो जाते थे।




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