अछूत | ACHHOOT

ACHOOT by अरविन्द गुप्ता - Arvind Guptaदया पवार - Daya pawar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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34 : अछत वे दोनों मांत्रिक के रूप में चारों ओर प्रसिद्ध थे । शादी निपर् जाने के बाद एक महिला में प्रेत का संचार हुआ | उसकी लटें खुली हुईं । पूरे माथे पर सिद्टर पुत्ता हुआ | बह महिला झूमती है। सामने की गोलाकार जमीन नींबू, पिन नारियल से भरी हुई। पिताजी को क्या सुझा, पता नहीं! थे आगे बढ़ते हैं, बह घेरा ठोकर से उड़ाते हैं और उस महिला को माँ की गालो देते हैं। अब महिला का प्रेत और बेताल हुआ। महिला झूमते- झूमते कहती है, 'माँ की ऐसी-तैंसी कहा ?' सटवा उसी घुन में उत्तर देता है, 'जाता है वापस कि घर का ही है ?' यह रंगीन वार्ता उन दोनों के बीच चलती रही। सारे बाराती हँसते-हँसते निढाल हो जाते हैं। इतते में पिताजी उसके चूतड़ में जब बबूल का काँटा चभोते हैं, तब. कहीं उसका भूत-पिशाच भागता है। बाद में कई दिनों तक महा रवाडा में यह मज़ाक सुनाया जाता रहा। पिताजी के स्वभाव में बुरे-भले का मिश्रण था। गाँव के अखाड़े में महा रवाड़ा के लड़कों को जोर करने की मनाही है, यह देखकर उन्होंने अपने घर में ही अखाड़ा शुरू किया । उस समय ओसारे में हम रहते । घर का पिछवाड़ा अखाड़े के लिए खोदा गया । लाल मिट्टी डाली गयी । अखाड़े में वे भी कभी-कभी उतरते। अपने से छोटे लड़कों को कुश्ती के दाँव सिखाते | गाँव के भुदंग और ठकारवाड़ी की ढोलकें स्याही भरने के वास्ते हमारे पास आती । मालूम नहीं, यह विद्या उन्होंने कहाँ से सीखी ! पिताजी जब गाँव आये तो बंबई की जगमगाहट कुछ ही दिनों में खत्म होने लगीं। पेट के लिए हाथ-पैर मारना ज़रूरी हो गया | बंबई में गोदी का काम उनके लिए विशेष कष्टदायक नहीं था, लेकिन गाँव में आकर बबूले को, नीम की लकेड़ियाँ फाइनी पड़तीं। वे खेतों की झाड़ियाँ खरीदते । अपने एक-दो साथियों के साथ वे कुल्हाड़ी कंधे पर रखकर घर से निकल पड़ते । बंबई की बुरी आदतों से झलसा शरीर गाँव की आबो- हवा और मेहनत के कामों से स्वस्थ होने लगा। गहरें सु्खे कुएँके पास वे लकड़ी फाड़ रहे हैं, यही बचपन का दृश्य मुझे याद आ रहा है। माँ भी गाँव के मराठा लोगों के खेतों पर जाकर गोड़ाई, खरपना, कटाई आदि अछूत : 35 “का काम करने लगी । उन दिनों गाँव में दारूबंदी बड़ी आम थी | पिताजी के मन में कभी- कभी पीने की लहर उठती । ऐसे समय वे क्या करे ? वे सीधे घर में ही _ ह्ाथ-भट्टी शुरू कर देते । उनका मित्र सटवा बड़ा हुनर वाला था। उसके सान्निध्य में किसी को ऊब न होती । बहू घंटों हँसाता रहता। 'पट्ठे बाबूराव की पवला मैंने नचायी है,' वह गये से बताता । उसके सौंदय का वह॒ वर्णन करता। बसे पवला हमारे ही जिले की देवदासी थी। वह इतनी गोरी थी कि 'पान खाते समय उसके गले' से लाल भकक्‍क पीक दिखती, यहूं क्रिस्सा सटवा हमेशा बताता । दो मील की दूरी पर स्थित बाशेरे गाँव का वह रहने वाला था। दो बीवियों का धनी। वे दोनों रात-दिन खटतीं और इसे पालतीं । यह उन्हीं की मेहनत पर पलता । बगुले-सा सवेरे ही उठकर बह तालुके या हमारे गाँव आ जाता । सटवा की इन दोनों बीवियों को झगड़ते मैंने अनेकों बार देखा । दोनों के मुह में असंख्य गालियाँ । लगता, ये अब एक-दूसरे का टेटुआ दबाकर ही दम लेंगीं। झगड़ते-झगड़ते वे ओच में हो रुक जातीं। चने, तम्बाक्‌ का लेन-देन करतीं। झगड़ा फिर शुरू करतीं । उनके झगड़े में बड़ा सज़ा आता । शायद झटवा ने ही पिताजी को दारू निकालने को कला सिखायी होगी । जब-जब सटवा घर आता, तब-तब उसकी यही बातें। सड़ा गुड़ नौशादर । नशा बढ़ाने के लिए वे किसी पेड़ की छाल भी उसमें डालते। सात-आठ दिनों तक वे डिब्बा कचरे के ढेर में दबाकर रख देते। पर तंब सक वे बेचन हो जाते। फिर-फिर जा कर वे माल सँघते | दारू निकालने के लिए लकड़ी, घेरा उन्होंने घर में ही बना लिया था। दारू की पहली धार निकलते ही वे उसमें माचिस लगा कर देखते। भवंक-से आग सगी कि माल अच्छा उतरा | तब वे खश हो जाते। लेकिन माँ को इस भट्टी के सामने खटना पड़ता | दो फ़र्लांग की दूरी से कुएँ से पांनीं लेकर आना पड़ता । इसी में वह पस्त हो जाती । भट्टी में लकड़िं याँ कम पड़ने पर पिताजी सहज ही गाँव चले जाते और अंधेरे में किसी के आहाते से हल उठा लाते | वैसे घर में भट्टी लगती, पर पिताजी ने दारू का धंधा कभी नहीं




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