स्वदेशी और भारतीय | SWADESHI AUR BHARTIYATA
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
50
श्रेणी :
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पुस्तक समूह - Pustak Samuh
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)हिंदुस्तानी तासीर दफनाने के लिए
अंग्रेजों ने बनवाई कांग्रेस
स्वदेशी और स्वदेश को जानने--समझने के लिए क्या पिछली
दो-तीन सदियों क॑ इतिहास को उघाड़ने की फौरी जरूरत है ? लेकिन
की इस काम से एक से एक मूर्धन्य महापुरुषों का मानभंजन हो गया
त्तो?
मुझे इस काम से कोई एतराज नहीं है | बल्कि देश में बेहतर मानवीय,
समाजिक, आर्थिक और राजनैतिक संबंध कायम करने के लिए मैं इसे जरूरी
मानता हूं। कहाँ थी कुचाल ? लॉर्ड विलियम 1830 में कहता है कि हमारे
प्रयासों का भारतीयों पर असर तो पड़ा है। लोगों ने अंग्रेजियत अपनाई है |
उनकी परंपराएं टूटी हैं | अंग्रेजीदोँ वर्ग में पैसा यूरोपीय तर्ज के मनोरंजनों पर
बहाया जा रहा है। 1870 आते-आते यह अंग्रेजीदाँ वर्ग इस बात के लिए
अकुलाने लगा कि जब हम अंग्रेजों की तरह रहना जानते हैं, उन्हीं की तरह
अंग्रेजी बोल लेते हैं, राजनीति और दर्शन वगैरह पर भी बात कर लेते हैं, तो फिर
वे हमें थोड़ा बराबरी का दर्जा क्यों नहीं देते ? रिचर्ड टेंपुल 1880-82 में कहता
है कि इन लोगों को कानून वगैरह पढ़ा देने से ऐसा हुआ है | थोड़े होशियार हुए
हैं तो होशियारी दिखा रहे हैं और बराबरी की मांग करते हैं | अब इन्हें जरा
विज्ञान की झलक दिखानी चाहिये, जिससे यह लोग हमारी बौद्दिक दासता
स्वीकार करें |
भारतीय तासीर का अंग्रेजी शासन और अंग्रेजियत के खिलाफ मौलिक
विरोध के रूप में 1870 के आसपास उत्तर प्रदेश और बिहार में गौहत्या के
खिलाफ जबरंदस्त जन आंदोलन उठ खड़ा हुआ | तत्कालीन वाइसराय के
मुताबिक इसकी ताकत 1857 के स्वाधीनता संग्राम जैसी ही थी। रानी उसे
चिट्ठी भेज कर सावधान रहने को कहती हैं कि आंदोलन हमारे ही खिलाफ है,
मुसलमानों के खिलाफ नहीं | गोमांस हम अंग्रेज ही ज्यादा खाते हैं | देश के
दूसरे हिस्सों में भी इस तरह के दूसरे देशी विरोध उठ रहे थे | इसे मोड़ कर नष्ट
करने और अंग्रेजीदाँ वर्ग में उठी बराबरी की मांग को संतोष देने के लिए ही
कांग्रेस का जन्म हुआ। स्वदेशी को खत्म करना तो कांग्रेस के गर्भनाल में है |
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अंग्रेजों की श्रेष्ठता मान लेने से बौद्धिक वर्ग ने अंग्रेजों का काम ही
आसान किया | अंग्रेजों ने अपने राज्य को वैधता देने के सिलसिले में भारत के
हजार साल से गुलाम रहने का रट्टा खड़ा कर दिया | कब था भारत हजार साल
से गुलाम ? गजनबी वगैरह तो लूट के लिए आए । मुसलमानों का कब्जा तो
1200 से शुरू हुआ | लेकिन कितनी दूर ? उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में | वह
भी पाकेट्स में | ऐसा नहीं था कि साग-बथुए की तरह यहां के लोग दब गए थे
और मुस्लिम निजाम चारों ओर पसर गया था | मुसलमानों को अंग्रेजों की तरह
जिला-जिला पहुँच कर प्रशासन की सीढ़ी बनाना नहीं आता था | इसे अंत तक
देखें | हिंदुस्तान कोई मुसलमानों के हाथ से अंग्रेजों के हाथ में नहीं गया।
हिंदुओं के हाथ से गया | मराठों ने दिया | बंगाल के राजाओं ने दिया | सिराजुद्दोला
वगैरह की तो नाम मात्र की सत्ता थी |
फिर अंग्रेजों ने हमें अपने नजदीकी समयबोध से भी काट दिया | जैसे
हिंदुस्तान में 2000-3000 साल की अवधि में सामाजिक संरचनाओं का समय
के मुताबिक कोई विकास ही नहीं हुआ | पुराणों, उपनिषदों और संहिताओं से
उदाहरण ढूंढ़ कर हमारी अठारहवीं सदी का फैसला होने लगा। भारतीय
धर्मशासत्रों के कमाल-कमाल के विशेषज्ञ निकल आये | यह साबित किया जाने
लगा कि मनुस्मृति में वर्णित वर्णाश्रम धर्म ही समाज का मानक है। मनु उभार कर
सामने लाए गए तो दलित आशंकाएं भी उभरीं | अठारहवीं सदी के हिंदुस्तानी
समाज की क्या कोई तस्वीर नहीं थी ? थी | शोध साबित करते हैं कि उन बुरे
दिनों में भी हिंदुस्तानी मजदूर की मजदूरी इंग्लैंड में दी जा रही मजदूरी से
ज्यादा थी | बंगाल पर पूरे कब्जे के बाद 1765 में सवाल उठा कि किसानों से
मालगुजारी कया ली जाए ? ये किसान तब छटा-आठवां हिस्सा ही देते थ।
जबकि इंग्लैड में तब के बंटाईदार जमींदार को आधा हिस्सा देते थे। अब
अंग्रेजों को वसूलना आधा है तो फिर उसके लिए चलो पुराने टैक्स्ट 17)
ढूंढ़ो | तो अलाउद्दीन खिलजी के जमाने में पहुंचते हैं। वहां सवाल-जवाब में
सलाहकार खिलजी को बता रहे हैं कि गैरमुसलामान से राजा उत्पाद का 50
फीसदी हिस्सा भी कर में ले लें तो गलत नहीं है | खिलजी का यह सवाल-जवाब
प्रमाण बना दिया गया | यह कह कर के कि जब अच्छा प्रशासन होता है तो लोग
50 फीसदी कर देते हैं। अब तक छठा-आठवां हिस्सा इसलिए देते थे कि अब
तक अच्छा प्रशासन नहीं था | 1780-85 में बनारस में एक ब्राह्मण पर हत्या का
इलजाम लगा | यह कुछ धरने वगैरह में हुई मौत थी | काफी पहले से हमारे यहाँ
इस प्रकार के दण्डों के लिये काला टीका करके देश निकाला देने का रिवाज
था | मामला कलकत्ता जाता है | विलियम जोन्स के पास | वे भारतीय धर्मशास्र
के विशेषज्ञ हैं न ! वे वह सब जानते हैं जो इस देश के धर्मशासत्री नहीं जानते ! तो
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