शोध दिशा, जनवरी - मार्च , 2014 | SHODH DISHA, JAN-MAR 2014

SHODH DISHA, JAN-MAR 2014 by अज्ञात - Unknownअरविन्द गुप्ता - Arvind Gupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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देवू के मन में टीस उठी, उसने बेटी के सिर पर हाथ रखकर कहा, “जब तुम्हारी शादी हो जाएगी, तब तुम्हारी माँ तुम्हें स्वयं सब बता देगी।' “वाह... तो क्‍या अपने ननिहाल के विषय में जानने के लिए मुझे शादी करनी पडेगी...।' पास बेठे पत्रिका में व्यस्त काका सब सुन रहे थे। अब उनसे रहा नहीं गया। वे देवू से बोले, “बेटा... हमारी बिटिया अब बड़ी हो गई है। उसे सब-कुछ बता देना चाहिए। अब वह काका के पास आ गई, 'देखिए न दादा जी... मैं कुछ पूछती हूँ, तो माँ गुस्सा करती है और पिताजी टाल देते हैं...। ये अब भी मुझे बच्ची समझते हैं।' काका को लगा, मालती ठीक कह रही हे। बी०एड० करने के बाद वह एक विद्यालय में पढ़ा रही है। साल दो साल में उसका विवाह भी हो जाएगा। फिर उसे अनभिज्ञ क्‍यों रखा जाए! काका से रहा नहीं गया। उन्होंने मालती को अपने समीप बैठाकर सब-कुछ बता दिया। सब जानकर उसके दुःख और आश्चर्य का पारावार न रहा। एक छोटी-सी भूल ने माँ से उसका नैहर सदा के लिए छुड॒वा दिया। वह बेचारी सारी उम्र अपनी माँ, मातृभूमि, अपने पिता, भाई, बहिन सबको याद कर रोती रही। लंबा सफ़र तय करके इतना कष्ट उठाते हुए वहाँ जाती रही, दूर से अपना आँगन देखती रही, पर एक बार उस आँगन में उतरने का साहस न जुटा सकी। अपने आँसू पोंछडकर वह काका और पिता से बोली, 'जो हुआ सो हुआ। अब मैं माँ के इस दुःख का अंत करूँगी। उसका खोया हुआ नेहर उसे दिलाकर रहूँगी।' काका और पिता उससे सहमत हो गए। उन्होंने तय किया कि शीघ्र ही अवसर देखकर सुनयना से बात की जाएगी और तब गाँव पहुँचने का कार्यक्रम बनाया जाएगा। मालती को दो दिन तक अवसर नहीं मिला, तो वह बेचेन हो उठी। आरिब्रिर उसने काका को गाँव चलने के लिए मना लिया और माँ को बताए बिना वे दोनों बहाने से निकल पडे। काका के साथ बस में बेठते ही काका के मन में तरह-तरह के विचार आने लगे। जाने ननिहाल में कौन मिले और किस तरह मिले! “दादाजी... मेरा पेट घूम रहा है...।' मालती बोली तो उन्होंने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया, ' थोड़ी देर आँख बंद कर लेटी रहो बेटा. 16 » शोध-दिशा « जनवरी-मार्च 2014 . अभी ठीक हो जाएगा।' उसने आँखें बंद कीं तो आँसू पलकों के बाहर छलक पडे। उमड़-घुमड़ पेट में नहीं मन में थी। एक ये दादाजी हैं। रिश्ते में उनके कुछ नहीं लगते, लेकिन सदा इन्होंने ही सहारा दिया। उसने तो आँखें ही इनकी गोद में खोली हैं और एक वे अपने नाना हैं, अपनी संतान की कभी सुध ही नहीं ली। अपने अहं के कारण। केवल अपने अहं के कारण ही तो। वरना माँ पिताजी से जो ग़लती हुई थी उसे उन्होंने सुधारकर समाज में सम्मान जनक स्थान भी तो बनाया। सोचते-सोचते उसकी आँख लग गई। ननिहाल से पहले पड़ने वाले पनघट पर वह उठी, तो काका ने बताया कि अब माँ के घर का आँगन दिखने वाला है। वे उतरने की तैयारी करने लगे। गाँव पहुँचकर घर ढूँढने में काका को कोई दिक्कत नहीं हुई। सब-कुछ पहले जैसा था। उस समय गाँव सुनसान था। सब खेतों में धान रोपने गए होंगे। काका ने सोचा और मालती से कमरों के भीतर जाकर देखने को कहा। एक कमरे के भीतर मालती को खटोले में लेटी एक कमज़ोर बूढ़ी काया दिख गई। उसने समीप जाकर उसके चेहरे को देखा तो उस पर माँ की छाया दिखाई दी। वह समझ गई यही उसकी नानी हे। अपनी व्याकुलता को सँभालते हुए वह उसके पास पहुँची तो बुढिया उठकर बैठ गई। “कौन हो तुम बेटा...?' मालती ने उसके चरण छुए। “तुम किससे मिलने आई हो नोनी...?' “तुमसे।' उसकी आवाज़ काँपी। “मुझसे! पर मैं तो तुम्हें नहीं पहचान रही बाबा...।' “क्या कहूँ... क्‍यों नहीं पहचान रही नानी? तुम मेरी नानी हो और मैं तुम्हारी नातिन...।' “नातिन...?” वह आश्चर्य से अपलक उसे देखती रही। “नहीं समझी? मैं तुम्हारी बेटी सुनयना की बेटी हूँ नानी...।' “सुनयना...सुनयना? कहाँ है सुनयना?' बुढ्िया बावरी-सी उसे देखने लगी। उसका मुँह खुला का खुला रह गया। वह बिना हिले-डुले मूर्ति-सी बैठी रही। मालती ने उसके घुटनों पर हाथ रखकर कहा, *मेरा विश्वास करो नानी। मैं तुम्हारी नातिन हूँ। क्‍या मुझ पर मेरी माँ की अन्वार (झलक) नहीं आ रही, जेसी कि




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