कलयुग की महाप्रलय | KALYUG KI MAHAPRALAY

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विजय मेहता - VIJAY MEHTA

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्द * कलयुग की महाप्रलय के लिए बनाया था, हम उसके गुलाम बन चुके हें और उसकी इच्छा के बिना एक पग भी इधर-उधर नहीं रख सकते | और याद रखिए क्‍या यह सब प्रगति है, हाँ यह प्रगति है । जनसंख्या की वद्धिओऔर उस भयावक जन-संख्या की भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार की भीषण भूख को श्वान्त करने के कार्य करना प्रगति है। क्‍या यह प्रगति की गलत परिभाषा नहीं है ? यदि आप इस परिभाषा से सहमत नहीं हैं तो मानवता का इतिहास खोल कर देख लीजिए । उद्योगीकरण युग से आज तक की घटनाओं पर नजर दौड़ाइये । उद्योग-धन्धों के बढ़ने से मनुष्य की घन-दौलत में वृद्धि हुई व अन्न का अधिकाय भी हुआ । इससे जन-संख्या में दिन दुगनी रात चौगनी उन्नति हुईं। उस भयानक जन-संख्या की भयानक भूख भी छिड़ी जो स्वाभाविक थी । इससे मनृष्य काँपा और फिर तेल के कूपों में तथा कारखानों में घुस गया। उन पंसों से उसने धन कमाया ओर अन्न मोल लिया । उसका यही चक्‍कर अभी तक चल रहा है। विज्ञान के वरदानों से और क्रषि के नये अनुसन्धानों व प्रयोगों से पर्याप्त खानें को मिल गया । किन्तु आज फिर कुछ सीमा तक, विश्व में, किन्तु निस्संदेह हमारे देश में जन- संख्या की वृद्धि और उसकी भीपरण भूख एक ज्वलन्न- समस्या बच चुकी है, जो प्रतिदिद हल से बाहर हो रही है । प्रगति के विशेषत: विज्ञान की प्रगति के भीषण परिणामों के भय का आभास: अब मानव को कुछ अधिक होने छगा है। रेडियो समाचार- पत्रों, रंगमंच आदि के विकास से मानव को विज्ञान के अभिशापों की अच्छी-खासी जानकारी मिल जाती है, जिससे उस पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। विज्ञान व टेकनीकल प्रगति की सव्व-व्यापकता ने हमें पंरस्पर सम्बन्ध व परस्पर सहयोग के क्षेत्र को बरी तरह पछाड़ दिया है। इससे ही आज भय, असुरक्षा व चिन्ता एक विद्यत्‌ की रेखा के समान चारों ओर फंली हुई है । विज्ञान ने जितने वरदान दिये हें उनसे




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