बहुरुपी गांधी | BAHUROOP GANDHI

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अनु बंद्योपाध्याय - Anu Bandyopadhyaya

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सेवाग्राम गए। वहाँ उन्होंने देखा कि गांधी कुछ प्रशिक्षार्थियों को जूता बनाना सिखा रहे हैं! “यह पट्टी यहाँ होनी चाहिए, यह टंकाई यहाँ पर इस प्रकार की जानी चाहिए, तल्‍ले पर जहाँ सबसे अधिक दबाव पड़ता है, चमड़े की आडी-तिरछी पटिटियाँ लगानी चाहिए।” इस पर एक नेता ने गांधी को उलाहना दिया कि ये शिक्षार्थी लोग हमारा समय ले रहे हैं। गांधी ने कहा: “चाहो तो अच्छी चप्पलें किस प्रकार बनाई जाती हैं तुम भी सीख लो।” एक दिन गांधी ने अपने साथियों के साथ गाँव के चमारों को मरे हुए बेल की खाल उतारते देखा। मरे जानवर की खाल को गाँव के बने एक मामूली छुरे से बिना कोई नुकसान पहुँचाए चीर कर वे किस निपुणता के साथ उतारते हैं, इसे देखकर गांधी बहुत प्रभावित हुए। गांधी को बताया गया कि गाँव का चमार जितनी सफाई के साथ खाल उतारने का काम करता है उतनी सफाई डाक्टर लोग भी चीर-फाड में नहीं दिखाते। गांधी तो मानते थे कि मनुष्य शरीर की चीर-फाड़ करने वाला डाक्टर भी वही काम करता है, जो चर्मकार या मोची। लेकिन जहाँ डाक्टर का धंधा सम्मानजनक माना जाता है वहाँ एक भंगी या चमार के काम को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है और उन्हें अछूत माना जाता है। गांधी को जूते की सिलाई सीख कर ही संतोष नहीं हुआ। वह चमड़ा कमाने का काम भी सीखना चाहते थे। दुनिया भर में इतने सारे लोग चमड़े के जूते पहनते हैं और यह चमड़ा ज्यादातर स्वस्थ पशुओं - गायों, बैलों, भेड़ों और बकरियों - को मार कर ही प्राप्त किया जाता है। गांधी अहिंसा में विश्वास करते थे। उन्होंने डाक्टर के आग्रह करने पर भी अपनी मरणासन्न पत्नी और बीमार बेटे को मांस का शोरवा या अंडा देना स्वीकार नहीं किया था। फिर भला वह मुलायम चमकदार जूते के लिए पशुओं की हत्या को कैसे पसंद करते। लेकिन फिर चमड़ा कहाँ से आए। उन्होंने केवल उन्हीं पशुओं की खाल का उपयोग करने का निश्चय किया जिनकी स्वभाविक मृत्यु हुई हो। मुर्दा पशुओं की खाल से बनी चमड़े की चप्पलें 'अहिंसक' चप्पल कहलाईं। मुर्दा पशुओं की खाल से चमड़ा तैयार करने की अपेक्षा मारे गए पशुओं की खाल से चमड़ा तैयार करना ज्यादा आसान था, और चमड़ा बनाने वाले कारखानों में अहिंसक चमड़ा तो मिलता नहीं था। इसलिए गांधी के लिए चमडा बनाने की विधि सीखना जरूरी हो गया। उन्होंने पता लगाया कि भारत से नौ करोड़ रूपए के मूल्य की कच्ची खाल का प्रति वर्ष निर्यात किया जाता है और विदेशों में वैज्ञानिक विधि से साफ होने के बाद उसी चमडे से तैयार करोड़ों रुपए का माल भारत में आयात किया जाता है। इससे न केवल देश को आर्थिक नुकसान होता था, बल्कि हमारे चमड़ा कमाने और उससे बढ़िया सामान तैयार करने में कारीगरों की सूझ-बूझ को फलने-फूलने का मौका भी नहीं मिल पाता था। कत्तिनों और जुलाहों की तरह सैकड़ों ही चमड़ा कमाने वालों और चमडे का सामान बनाने वालों की रोजी मारी जाती थी। गांधी की समझ में नहीं आता था कि आखिर चमडा कमाने का धंधा नीचा क्‍यों समझा जाता है। प्राचीन काल में ऐसा कभी नहीं रहा। गांधी ने देखा कि लाखों चमार यह काम करते हैं और उन्हें पीढ़ी-दर-पीढ़ी 'अछू्त' समझा जाता है। सवर्ण लोग उन्हें नीची निगाह से देखते हैं और चमार लोग कला, शिक्षा, स्वच्छता और सम्मान से रहित बहुत ही गिरा हुआ जीवन बिताते हैं। चमार, भंगी और मोची लोग उपयोगी काम करते हैं, समाज की सेवा करते हैं, फिर भी जात-पात के भेदभाव के कारण, वे अछूत समझे जाते हैं और जानवरों से भी बदतर जीवन बिताते हें। अन्य देशों में यदि कोई आदमी चमार या मोची का पेशा अपनाता है तो उसे 'अछूत' नहीं समझा जाता। चमड़ा कमाने के इस ग्रामोद्योग को फिर से चालू करने के लिए गांधी ने सार्वजनिक निवेदन निकाले। गाँवों में चमड़ा कमाने की कला बड़ी तेजी से खत्म होती जा रही थी। उसे फिर से चालू करने के लिए गांधी ने वैज्ञानिकों से भी सहायता माँगी। गांधी ने सोचा कि चमड़ा कमाने का सुधरा हुआ तरीका अपनाने से चमारों में मृत जानवर का मांस खाने का रिवाज खत्म हो जाएगा। कहीं तो यह हाल था कि जब कभी किसी चमार के घर खाल निकालने के लिए मरा हुआ जानवर लाया जाता तो सारा घर खुशी से नाचने लगता क्योंकि उस दिन मरे हुए जानवर का माँस




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