राजकुमार की प्रतिज्ञा | RAJKUMAR KI PRATIGYA

RAJKUMAR KI PRATIGYA by पुस्तक समूह - Pustak Samuhयशपाल जैन - Yashpal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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8/17/2016 यह सब होते ही नगर भर में खबर फैल गई कि परदेस से एक बहुत बड़ा सौदागर आया है। लोग अचंभे में रह गए कि ऐसा एकदम कैसे हो गया, लेकिन उनके सामने सौदागर मौजूद था और उसके पास बेशकीमती आभूषणों का भंडार था। यह खबर उड़ती-उड़ती राजमहल में पहुँची | प्मिनी ने यह सब सुना तो उसका मन मचल उठा। उसने कहा, 'उस व्यापारी को हमारे सामने लाओ।' तुरंत पत्निनी के दूत व्यापारी बने राजकुमार के पास पहुँचे और पत्नमिनी का संदेश कह सुनाया। राजकुमार तो यह चाहता ही था। वह पद्मिनी से मिलने महल में पहुँचा तो वहाँ के दृश्य देखता ही रह गया। सबकुछ अनूठा था। महल का द्वार बहुत ही कला-कारीगरी पूर्ण था। अंदर लता-गुल्मों के बीच फव्वारे अपनी बहार दिखा रहे थे। महल चारों ओर से घिरा था, किंतु दूत के साथ होने के कारण उसे अंदर प्रवेश पाने में कोई कठिनाई नहीं हुई | पद्मिनी एक सजे-धजे कक्ष में सिंहासन पर विराजमान थी। राजकुमार के कक्ष में प्रविष्ट होते ही उसने उसका अभिवादन किया। राजकुमार ने भी हाथ जोड़ कर, सिर झुका कर अपना सम्मान व्यक्त किया। पद्मिनी ने उसे बैठने का संकेत किया।| वह आसन पर बैठ गया तो पद्मिनी ने पूछा, 'तुम कहाँ से आए हो?' पद्मिनी के मुँह से शब्द नहीं, मानो फूल झड़े हों। राजकुमार एकटक उसकी ओर देखते हुए बोला, 'मैं स्वर्ण-भूमि से आया हूँ।' 'वहाँ क्या करते थे? पद्मिनी ने अगला प्रश्न किया। 'जी, मैं हीरे-जवाहरात का व्यापारी हूँ।' राजकुमार ने उत्तर दिया। 'यहाँ कैसे आए?' पद्मिनी ने थोड़ा गंभीर हो कर पूछा। 'सुना था, आप आभूषणों और हीरे-जवाहरात की पारखी और प्रेमी हैं।' राजकुमार का संक्षिप्त उत्तर था। 'तो तुम कुछ आभूषण लाए हो?' 'जी हाँ।' 'कहाँ हैं?' 'समुद्र के किनारे मेरा जहाज खड़ा है।' राजकुमार ने सहज भाव से कह दिया। पद्मिनी ने मुस्करा कर कहा, 'तो तुम उन्हें मुझे दिखा सकते हो?' 'अवश्य। मैं तो यहाँ आया ही इस काम से हूँ।' 16/32




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