पंडितों के पंडित - नैन सिंह रावत की जीवनगाथा | PANDITON KE PANDIT - NAIN SINGH RAWAT KI JEEVANGATHA

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शेखर पाठक - SHEKHAR PATHAK

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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18 पंडितों का पंडित कर्नल क्राफोर्ड ने नेपाल की यात्रा की थी। सन्‌ 1807 में कंपनी ने नेपाल सरकार से स्वीकृति लेकर सन्‌ 1808 में कैप्टन एफ. वी. रेपर, लेफ्टिनेंट डब्ल्यु. एस. वेब, कोलब्रुक तथा कैप्टन हैदर जंग हियरसे आदि को गढ़वाल भेजा था । इस दल ने भौगोलिक परिदृश्य, सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था तथा गोरखा शासन के अंतर्विरोधों के साथ उत्तराखंडवासियों की दुर्दशा को प्रत्यक्ष देखा-समझा था। यह संभावना प्रकट की थी कि कुछ ही दिनों में स्थानीय जनता गोरखों के खिलाफ विद्रोह कर देगी। दूसरी ओर हरबल्लभ मुंशी तथा उसके सहयोगियों ने भटवाड़ी से गोमुख तक का सर्वे 1 मई से 8 मई 1808 के बीच किया। हरबल्लभ ने भटवारी से गंगोत्री और कुछ आगे पहुंच कर बर्फ के बीच उस चझ्ान को देखा था, जिसे गोमुख कहा जाता था और जहां से भागीरथी जन्म ले रही थी। इस दल के सदस्यों ने बदरीनाथ से आगे तक, फिर कुंवारी पास से अल्मोड़ा के करीब स्थित धामस गांव से होकर रूद्रपुर तक की यात्रा की थी। अगली यात्रा तिब्बत तक होने वाली थी। सन्‌ 1812 में विल्रियम मूरक्राफ्ट ने पिछली यात्रा के अनुभवी कैप्टन हैदर जंग हियरसे को साथ लेकर नीती दर्रे से होकर पश्चिमी तिब्बत की यात्रा की। उनके साथ गुलाम हैदर खां और हरकदेव पंडित भी थे; जिन्हें कदम गिन कर दूरी नापनी थी। यह दल 9 मई 1812 को ढिकुली (वर्तमान रामनगर के पास) से चलकर पश्चिमी रामगंगा के किनारे भिकियासैण, देघाट से लोहबा (गैरसैण) होकर कर्णप्रयाग और 24 मई को जोशीमठ पहुंचा। क्योंकि दो वर्ष पूर्व जोशीमठ और बद्रीनाथ तक के मार्ग का सर्वे रेपर, वेब तथा कोलब्बुक का दल कर चुका था। अतः मूरक्राफ्ट और हियरसे जोशीमठ से धौली नदी के किनारे-किनारे मलारी, नीती तथा उससे आगे जाना चाहते थे। 26 मई को जोशीमठ से चलकर ढाक तपोवन, रैणी और मलारी होकर 4 जून को वे सीमांत नीती गांव पहुंचे। 20 दिनों की प्रतीक्षा तथा प्रयत्न के बाद नीती दर्रे से हो कर यह दल 3 जुलाई 1812 को तिब्बत में दाबा (गस्तोक) नामक स्थान पर पहुंचा । वेश बदलकर मूरक्राफ्ट ने 'मायापुरी! और हियरसे ने 'हरगिरि' नाम अपनाया। दोनों गुर्साँइयों के वेश में कैलास-मानसरोवर तक जाना चाहते थे। सतलज के किनारे-किनारे वे तीर्थापुरी होकर दारचिन पहुंचे, जो व्यापारिक मंडी के अलावा कैलास परिक्रमा हेतु आधार शिविर की तरह था। 6 तथा 7 अगस्त 1812 को मानसरोवर तथा राकसताल के आसपास गए। स्वयं बीमार हो जाने के कारण मूरक्राफ्ट ने हरकदेव से ज्यादा विस्तार से राकसताल को देखने को कहा। उसने पाया कि राकसताल के पश्चिमी कोने से सतलज की प्रथम शाखा निकलती थी। यह प्रमाणित हो गया था कि मानसरोवर से एक मौसमी धारा के अतिरिक्त कोई नदी जन्म नहीं लेती है। वापसी में वे 7 सितंबर को नीती पहुंचे । हिमालय की खोज 19 मूरक्राफ्ट के विवरण से उत्तराखंड तथा पश्चिमी तिब्बत के बारे में विविध जानकारियां मिलती हैं। उसी ने तिब्बत के इस हिस्से में रूसी व्यापारियों के पहुंचने की जानकारी दी थी। नदी, पर्वत, वनस्पतियां, जीव जंतु, व्यापार सामग्री, सामाजिक परिदृश्य, गोरखा शासन के स्वरूप, मार्ग तथा पुलों की स्थिति पर भी इस विवरण से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। हैदर हियरसे की डायरी में भी कहा गया था कि इस क्षेत्र की जनता गोरखा शासन की क्रूरता से अत्यंत दुखी होकर विद्रोह को तत्पर थी। इस दल ने अपनी विस्तृत रपट कंपनी को दी थी, जिसका संपादित रूप ही प्रकाशित हुआ था। इसके बाद फ्रेजर भाइयों (जेम्स तथा विलियम) ने सहारनपुर, देहरादून, उत्तरकाशी, गंगोत्री, यमुनोत्री, ट्यूनी, हाटकोटी, सराहन, रामपुर, बुशहर आदि होकर नहान तक की यात्रा की थी तथा उत्तराखंड और पश्चिमी हिमालय संबंधी विस्तृत रपटें कंपनी को प्रेषित की थीं। गार्डनर ने भी इसी तरह का कार्य किया। उनके अनैक यात्रा विवरण उस दौर में चर्चित भी हुए | कहा जाता है कि लार्ड हेस्टिंगग (सन्‌ 1813-1823) भी कुमाऊं आए थे लेकिन कदाचित्‌ काशीपुर तक ही और उसने सर्वे कार्य में बहुत रुचि ली थी। यह माना जाता है कि मूरक्राफ्ट की यात्रा से तब तक गवर्नर जनरल बन गए, लार्ड हेस्टिंग्ज को नेपाल युद्ध के लिए आधारभूत आर्थिक तथा राजनैतिक तर्क मिले थे। नेपाल युद्ध के बाद ही मध्य-पश्चिम हिमालय में कंपनी का प्रत्यक्ष आगमन संभव हुआ और तिब्बत जाने का मार्ग भी खुला।




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