श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ (1990-२०००) | SHRESTH HINDI KAHANIYAN 1990- 2000

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खगेन्द्र ठाकुर -KHAGENDRA THAKUR

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पुस्तक समूह - Pustak Samuh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नृशंस 13 “आईसी!” मैं मुस्कराया, “मुझे लगा शायद तुम इसे पर्सनली जानती हो!” “नहीं सर! ऐसी कोई बात नहीं।” डा. सुजाता राय जैसे सफाई देने पर उतर आयी, 'पेशेंट के साथ जो लोग आये हैं, दरअसल उनकी बातों से भी भान हुआ कि यह पेशेंट नक्सल लीडर है।” सहसा मुझे ख्याल आया कि सिस्टर एलविन अभी तक वापस नहीं आई है, लिहाजा मैंने पेशेंट की बाबत डा. सुजाता राय को कुछ हिदायत दी और तेजी से आई.सी.सी.यू. से बाहर चला आया। सिस्टर एलविन मुझे कॉरीडोर में ही आती हुई मिल गई। वह बुरी तरह झुंझलायी हुई थी। मुझ पर नजर पड़ते ही वह तीखे लहजे में लगभग फट-सी पड़ी, “सर, उधर कोई नहीं है। बायोकेमेस्ट्री में ताला लगा है।” “क्या?” मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। इस इंस्टीट्यूट में व्याप्त यह अराजकता कोई नई बात नहीं, लेकिन उस वक्‍त सिस्टर एलविन द्वारा दी गई यह सूचना मुझे नागवार लगी। मैं एकदम तैश में आ गया। सिस्टर एलविन को आई.सी.सी.यू. में जाने को बोल कर मैं तेजी से आगे बढ़ गया। इंस्टीट्यूट के बाहर बरामदे में एक, खामोश मगर बेचैन भीड़ खड़ी थी। मुझे देखते ही कई जोड़ी आंखे मेरे चेहरे पर टिकीं। उन आंखों में आशा थी... आशंका थी... जिज्ञासा भरी चुप्पी के पीछे छलछलाती हुई याचना थी। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं उस भीड़ से आंख मिला पाऊं। बचकर निकल जाने की कोशिश में मैं डाक्टर्स चेम्बर की ओर बढ़ा ही था कि यक-ब-यक पूरा इंस्टीट्यूट घुप्प अंधेरे में डूब गया बिजली गुल हो गई थी। अछोर-अंधेरे में जैसे हर चीज अपनी जगह पर ठहर गई थी। इस भयावह अंधेरे के बीच एक बारगी मेरे दिमाग में एक साथ दो चेहरे कौंधे। पहला मेरी पत्नी का चेहरा, दूसरा आई .सी.सी.यू में अपनी मौत से लड़ रहे पेशेंट विजय मित्र का। दोनों चेहरे एक-दूसरे में गुड्मुड्ठ हो गए और मैं किंकर्ततव्यविमूढ़-सा रोशनी आने का इंतजार करता रहा। 14 अष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1990-2000) मुझे आश्चर्य हो रहा था कि अभी तक इंस्टीट्यूट का जेनरेटर क्‍यों नहीं चालू हुआ? इस अप्रत्याशित विलंब और अंधेरे के आंतक में मेरे लिए और प्रतीक्षा करना मुश्किल हो गया। मैं अंधेरे में ही अंदाज के सहारे आई .सी.सी. यू. की ओर दौड़-सा पड़ा। आई.सी.सी यू. में मेरे दाखिल होते न होते बिजली आ गई या कि जेनरेटर चल पड़ा। झपाक से आई रोशनी मे मेरी आंखे चुंधिया गई। मैंने पलकें झपकाते हुए ई.सी.जी. मॉनिटर स्क्रीन पर टिका दीं। वहां “हार्ट बीटट्स” बताने वाली रेखाओं का ग्राफ नदारद था। स्क्रीन पर सिर्फ एक सपाट-सी चमकती लकीर स्थिर थी। मैं दौड़ा हुआ पेशेंट के पास गया, उसकी कलाई अपने हाथ में लेकर नब्ज टटोलने लगा। मैं इस कदर व्यग्र और विहृवल था कि पेशेंट की नब्ज पकड़ में नहीं का रही थी। मैंने आनन-फानन पेशेंट को कार्डियल पल्मोनरी रिससिटेशन देने की कोशिश की, लेकिन डा. सुजाता राय ने मुझे रोकते हुए कहा, “सर, पेशेंट इज नो मोर!” मैंने गौर किया कि डा. सुजाता राय उस वक्‍त न तो भावुक थी न ही बेचैन। उसका स्वर निहायत सपाट था। मुझे लगा कि वह मेरी बेचैनी और भावुकता को लक्ष्य कर रही है, लेकिन सच तो यह है कि मैं उस वक्‍त तक पेशेंट की मृत्यु को स्वीकार नहीं पाया था। मैंने हताश स्वर में डा. सुजाता राय से कहा, “नो डा. राय, वी कुड नाट सेव हिम!” बयान देते-देते डा.सी.के. भगत रुके, उनके माथे पर पसीना छलक आया था, पसीना पोंछने के लिए रूमाल निकालते हुए उनका दिमाग कई-कई स्म्ृृतियों में उलझ गया था। मन सुदूर अतीत की ओर भाग छूटा था। (लाख चाहकर भी विजय मित्र को बचाया नहीं जा सका था, हालांकि उन समेत कई छात्रों ने तर्क दिया था कि किसी छात्र की राजनीतिक प्रतिबद्धता उसका निजी अधिकार है इस आधार पर उसे कालेज ने नहीं निकाला जाना चाहिए। लेकिन कालेज प्रशासन कोई दलील सुनने को तैयार नहीं था। बल्कि छात्रों के इस विरोधी तेवर के उग्र होने से पहले ही कालेज परिसर में सख्ती शुरू कर दी गई थी। एहतियात के नाम पर पुलिस की तैनाती और कई प्राध्यापकों




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