संस्कार | SANSKAR

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यू० आर०अनन्तमूर्ति - U. R. ANANTMURTI

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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30 : संस्कार बल्कि पूरे दक्षिण में प्रसिद्ध प्राणंशाचार्य तो हैं ही । उन्हें आपद्धर आदि का मनन करके अपना निर्णय देने दीजिये । हम नारणप्पा का दाह-संस्कार और बाद की क्रियाएं करने को तेयार हैं । मंजय्या ने कंजस माध्वों को चिढ़ाने के लिए कहा, “ख़च के बांरे में आप चिता न करें। वह मेरा मित्र था। मैं स्वयं दान आदि करवाऊगा | अध्याय ; 3 सब ब्राह्मण. पारिजातपुर चले गये थे। प्राणेशाचारयंजी ने कुछ द्रवित होकर चन्द्री को बैठने के लिए कहा । फिर अपने खाने के कमरे में आये जहाँ उनकी पत्नी सोयी हुई थी । “देखो तो, चन्द्री का हृदय कितना साफ़ है, कहते हुए उन्होंने चन्द्री के द्वारा गहने उत्तारकर देने तथा उससे पैदा होने वाली नयी समस्या के बारे में पत्नी को बतलाया। इसके बाद भोजपत्र के ग्रंथों को खोलकर देखने लगे कि इस बारे में धर्मंशास्त्र क्या कहता है। हमेशा से ही यह नारणप्पा उनके सामने समस्या बनकर खड़ा रहा है। उन्हें भी जिद थी कि देखें, अग्रहार में अंतिम विजय उनके सनातन धर्म और उनकी तपस्या की होती है या नारणप्पा के राक्षसी स्वभाव की ! जाने शनि की किस दशा से वह उस तरह का बन गया था, यह सोचकर वे दुखी हुए । ईश्वर की कृपा से उसका उद्धार हो, यही कामना करते हुए सप्ताह में दो बार वे रात का भोजन तक त्याग चुके थे। उनके हृदय में उसके लिए पश्चात्ताप की भावना या स्नेह का कारण था---उसकी माँ को दिया हुआ अपना वचत--ततुम्हारे-बुंत् की रक्षा करूँगा । उसे सन्‍्मार्ग पर लाऊंगा#--मरणासन्न!क्षुढ़िया को यह वचन देकर उन्होंने धीरज बंधाया था । किन्तु नारणप्पा सन्माग पर नहीं आया # जिस ग़रड़ के पुत्र श्याम और लक्ष्मण के दामाद श्रीपति को उन्होंने संस्कार : 31 शास्त्र पढ़ाये थे, मंत्र कंठस्थ करवाये थे, उसने उन दोनों को उनके प्रभाव से बाहर खींच लिया था। उसी ने घर छोड़कर सेना में भरती होने के लिए श्याम को उकसाया था। गरुड़ और लक्ष्मण की शिकायतें सुनकर वे एक दिन उसके पास गये थे। वह गद्दी पर सो रहा था। उन्हें देखकर उठ खड़ा हुआ और उनके प्रति सम्मान दरशाया । किन्तु जब वह उसके हित की बात कहने लगे तो उलटी-सुलटी बातें करने लगा। ब्राह्मण-धर्म की निन्‍दा करने लगा। “अब आपका शास्त्र, धर्म नहीं चलेगा । आगे आयेगा कांग्रेस का राज । अछ्तों को देव-स्थान में प्रवेश करने का अधिकार आपको देना पड़ेगा ।'” ऐसी अनेक असम्बद्ध बातें उसने कीं। उन्होंने उससे श्रीपति को उसकी पत्नी से अलग न करने का आग्रह किया तो “मैंने कया किया है कह- ' कर वह 'हा-हा' करके हँस दिया था । “जो लड़की सुख नहीं देगी, उसके साथ कौन ज़िंदगी चलायेगा आचायंजी, सिर्फ़ बेकाम ब्राह्मणों के सिवा ? रिश्ते की बात बताकर एक पगली को मेरे गले में बाँधना चाह रहे थे न आप ब्राह्मण लोग अपना धर्म अपने पास ही रहने दीजिये। एक बार ही तो जिदगी मिलती है। मैं. चार्वाक का वंशज हूँ : “ऋण कृत्या घृतं पिवेत्‌ । प्रणेशाचायं ने उसे समझाया कि यह भौतिक शरीर शाश्वत नहीं . है भाई, फिर तुम जो चाहो करो, किन्तु इन बच्चों को तो बरबाद न करो। द सुनकर वह हँस दिया | “विधवाओं की जायदाद हड़पनेवाला, जादू- टोना करवाकर दूसरों की बुराई चाहनेवाला गरुड़ आपकी दृष्टि में ब्राह्मण है न !” कहकर उसने खिलल्‍ली उड़ायी थी। द “देखते हैं आचार्यजी, अंत में आप जीतते हैं या मैं ? कितने दिन तक आपका ऐसा ब्राह्मणत्व चलेगा ? जी में आये तो ब्राह्मणत्व का यह सारा गौरव मैं एक औरत से मिलने वाले सुख पर लुटा दू । आप अब चले जाइये। ज्यादा कह-सुनकर आपको दु ख देने की मेरी इच्छा नहीं । क्‍ ट ऐसे व्यक्ति का जब बहिष्कार किया जा रहा था तब आचार ही बीच में आ गये थे, भला क्‍यों? भय से ? पण्चात्ताप से ? अंत में अपने




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